सोहन - एक अजीब सी बात करें।
निर्मल - हाँ
सोहन - मान लो हम सभी मित्रों में अचानक एक दिन किसी की मृत्यु हो जाए, किसी और के लिए नहीं चलो मैं अपने लिए ही कहूं - तो क्या फर्क पड़ेगा हम सबको?
क्या हम वक्त निकाल के उसके बारे में सोचेंगे, कि कुछ गया पास से और नुक्सान हुआ, या फिर वक्त के साथ वही भाग-दौड़?
निर्मल - जिसको फरक पड़ेगा वो जताएगा नहीं... और बाकी दुनिया शोक मनाएगी...
सोहन - ह..हआ हा हा ह (ठहाके की आवाज ) ये सही और स्पष्ट था. अति उत्तम।
निर्मल -हाँ यार, यही होता है... अब तुम ही कितने लोगों के बारे में सोचते हो दिल से.. तो क्या उन लोगों और उनके रिश्तेदारों को पता चलता है.. नहीं.. ये सब दिल की बात है... भूल जाना... चर्चा न करना... ये सब एक तरफ़ है.. दूसरी तरफ़ है ... अपना मन.. जो इतनी आसानी से नहीं मानता है।
सोहन - क्या कोई ऐसा नुकसान तुम्हे लगता है जो कुछ बेहतर कर जाता है? या ये नुकसान ही कहलाता है
निर्मल - मेरा मानना है.. सब कुछ बराबर होता है.. .. अगर कहीं नुक्सान.. होता है.. तो कहीं कुछ सही होता है.. बस पूरी तस्वीर दिखनी चाहिए.. जैसे.. राम जी को वनवास हुआ.. दशरथ के लिए जिंदगी का सवाल हो गया ... पर दुनिया का कल्याण उसी में लिखा था....
सोहन- तुम मानते हो की नुक्सान होते रहना चाहिए।
निर्मल - इसको ऐसे देखो.... - अच्छा काम होते रहना चाहिए ...अब उसकी वजह से कुछ नुक्सान भी होता है.. तो कुछ नहीं किया जा सकता॥
सोहन - ओह! .. नुक्सान की कोई सीमा रुपरेखा नही होती?
निर्मल - सही
सोहन - हर व्यक्ति के लिए उसकी परिभाषा शायद अलग है।
निर्मल - हाँ. और एकदम होनी भी चाहिए।
सोहन - : इसीलिए मै जो कह रहा हूँ कि क्या नुक्सान हो तभी ज्यादा जान पाता है इंसान या बिना नुकसान के भी जीना अच्छा है. बेहतर क्या है?
निर्मल - असल में... बिना नुक्सान के जीना -- ऐसी कोई बात होती ही नहीं है... नफा - नुक्सान दोनों ही दो पहलू हैं जीवन के... साथ साथ चलेगे... पर जीवन में किसी की वजह से कुछ फरक नहीं आना चाहिए .
जैसे साँस लेते हैं हम.... नित्यक्रिया को जाते हैं... खाना खाते हैं.. बीमार पड़ते हैं.. उसी तरह से नुक्सान और फायदा भी बस एक चीज़ है....
सोहन - अगर ऐसा समझे तो जीवन में किसी की value ही नहीं कर सकते. कि उसके होने न होने से कोई फरक नही।
निर्मल - जीवन में उसकी value है.. पर अटैचमेंट (लगाव / जुडाव ) नहीं है.. हम उसको एक value की तरह नहीं बल्कि एक ईश्वरीय वरदान के रूप में देखते हैं.. न की खरीददार की तरह कि.. खो जाने.. या नुक्सान हो जाने से.. दुःख करें।
सोहन - हम्म ...खरीददार ... फ़िर क्यूँ हक जमाया जाए कही भी किसी पे?
निर्मल - एकदम सही समझा. इस जीवन चक्र में.. इश्वर ने कुछ पल हमें दिए.. हमने अपना भाग लिया और बिना स्वार्थ के.. उसको आगे दूसरों से बांटने के लिये आगे कर दिया...
सोहन - क्या ईश्वर के होने की वजह से सारी समस्या है? कि वो बैठ के सबके लिए समीकरण तैयार करता रहता है. शायद उस आदमी पे ज्यादा ट्रस्ट (भरोसा ) भी ठीक नही जिसे इश्वर कहते है,
कर्म ही पूजा है पर दिल भी तो है ...और वो हे डरता है हर बार
निर्मल - ' ईश्वर ' अगर तुम एक कर्मयोगी की नजर से देखो.. तो कुछ नहीं बल्कि एक 'रेफेरेंस' (reference) है, जिसे की हम सब अपनी -अपनी भाषा में कुछ समझते है.. उसके कुछ मायने हैं..और एक दूसरे को -- या फिर कई बार लोगों को समझने समझाने में काम आता है... रही बात दिल की... मैं कुछ नही कह सकता... सबका दिल अपना अपना है.. पर एक बात सही है.. की दिल भी वैसा होता है.. या बन जाता है.. जैसा हम उसको बना न चाहते हैं.. जैसा हम उसको समझाते हैं
सोहन - हम्म कुछ हद तक सही किंतु हम अलग एंगल से सोचते है लाइफ को. चलो पर अच्छा healthy discussion हुआ ये।
निर्मल - यह अलग एंगल (दृष्टिकोण) ही है.. जिसे मैं कहता हूँ की हमारा दिल और हम उसे कैसे समझाते हैं.. दिल हमारे अन्दर का एक आइना होता है - एक अलमारी माफिक.. जिसमें हम अपने लम्हों को संजों के रखते हैं.. बस जो रखेंगे... वही सोच बन जायेगी कुछ समय बाद.
बहुत अजीब हैं आप..दोस्तों की मौत के बारे में सोचते हैं..यह भी तो सोच सकते थे कि अगर कोई दोस्त सफलता के चरम तक पहुंच जाए या फिर खुशी जाहिर करने के लिए भव्य समारोह रखे तो समय मिल पाएगा जाने के लिए..मैं तो मुद्दत से अपने किसी दोस्त की शादी तक में नहीं गई हूं....
ReplyDeleteबड़ी गहन वार्तालाप करते हैं आप..सार्थक तो खैर है ही.
ReplyDeleteSomething very very special and always reminds me of those special moments :)
ReplyDeleteShailesh