मैं और मेरी पंचायत. चाहे ऑफिस हो, या हो घर हम पंचायत होते हर जगह देख सकते हैं. आइये आप भी इस पंचायत में शामिल होइए. जिदगी की यही छोटी-मोटी पंचायतें ही याद रह जाती हैं - वरना इस जिंदगी में और क्या रखा है. "ये फुर्सत एक रुकी हुई ठहरी हुई चीज़ नहीं है, एक हरकत है एक जुम्बिश है - गुलजार"


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Friday, May 7, 2010

शादी करोगे तो पता चलेगा... हुंह!!

Sister, Brother & MeImage by El_Sol via Flickr
तीन साल बाद वो भूल जाती थीं... अब हम जब क्लास ६ में थे तो वो ९ में थीं, अब भला हम उनके क्लास में तो जा नहीं सकते थे.. बड़ा परेशान करती थीं.. ये भी अजीब आदत थी.. कुछ भी पूछो तो कहेंगी - अभी ६ में हो ना, जब ९ में आओगे तो पता चलेगा. अभी बहुत आसान लग रहा है ना बेटा!! अभी थोड़े समय में पता चलेगा. अभी बोलो मैथ सेकंड (Maths -2) है तुम्हारे  में .. नहीं  ना !! तो जब ९ में ये सब्जेक्ट आएगा तब पता चलेगा. अभी कर लो मजा. 

टुन्ना को आज अनायास ही ये वाक्या याद आता है. टुन्नी उससे तीन साल बड़ी थी.  और ये आम नोंक झोंक इतनी स्वाभाविक थी कि, आज टुन्ना को एहसास होता है - कि जिन लोगो ने अपने जीवन में इस पल को नहीं जिया है, उन्होंने कितना कुछ मिस किया है. 

जब टुन्ना कुछ समय के बाद टुन्नी के क्लास में पहुँचता .. तो हर विषय की किताबों में वो सवाल खोजता जिसका जिक्र टुन्नी अक्सर किया करती थी. पर अब तो टुन्नी ११ में थी. टुन्ना मन ही मन सोचता था, कि काश एक बार ....  वही दूसरी तरफ टुन्नी मजे से टुन्ना को उसी तरह से टोपी पहनाते हुए आगे बढ़ती रही. 

समय ने पलटा खाया. टुन्नी ने डबल ग्रेजुएशन किया. अब टुन्नी ने MBA में दाखिला ले लिया था. वही दूसरी तरफ टुन्ना ने ग्रेजुएशन के बाद एक दूसरे शहर में नौकरी शुरू कर दी. लगा की सब ख़त्म, पर कहानी अभी बाकी है दोस्त. टुन्ना की कंपनी ने काम के साथ-साथ MBA का मौका दिया. बस फिर क्या था, पलक झपकते ही टुन्ना ने दाखिला ले लिया - और अब शुरू हुआ चुनौती का दौर - लेकिन दोनों अलग शहर में थे - तो उनकी बाते फ़ोन पे ही होती थी. किस सब्जेक्ट में कितना आया पूछ लिया करते थे. पर टुन्नी का पलड़ा फिर भी भारी था. आखिर वो फुल टाइम MBA जो कर रही थी

लीजिये टुन्नी पहुँची टुन्ना के शहर इन्टर्नशिप करने. टुन्ना से जितना बन पड़ा किया - आखिर उनके पास वर्क एक्सपेरिएंस था... तो टुन्नी के रिज्यूमे अपडेट से ले के जो बन पड़ा किया. जिन्दगी में पहली बार टुन्ना को इतनी ख़ुशी मिल रही थी पर फिर भी वो जब तक ये टुन्नी के मुह से नहीं सुन लेता कलेजे को ठंडक नहीं मिलती. 

इससे पहले की टुन्नी कहीं नौकरी करती उसके पहले अचानक ही टुन्नी की शादी हो गई और वो काफी दूर चली गई. टुन्ना के हाथ से समय निकल चुका था. उसको मालूम था कि अगर वो आज टुन्नी से बोलेगा ... तो टुन्नी तपाक बोलेगी - "शादी करोगे तो पता चलेगा - अभी समझ रहे हो ना कि नौकरी बड़ी चीज़ है.. हुंह!!"
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Thursday, February 4, 2010

छोटी छोटी खुशी के वो पल दो पल

Dinodia.com
Lottery (Photo credit: Internet - Dinodia.com)

अब लाटरी चाहे चार डालर की लगे या चार रूपये की - पर मन तो खुश होता है ही. मेरे को भी याद है, कि जब हम बनारस के बड़ी पियरी मोहल्ले में रहा करते थे तो एक बार पापा ने मेरे नाम से २ रूपये की लाटरी खरीदी थी, और उसमें शायद १० रुपये निकले थे - वो पापा का उस मोहल्ले के नुक्कड़ के पान वाले को (जो कि लाटरी विक्रेता भी था) अपना लकी लाटरी का टिकेट दिखा के वो १० रूपया लेना आज भी याद है. इस घटना को बीते बाईस साल हो गए.

फिर एक बार दैनिक जागरण की बाल प्रतियोगिता के लाटरी से चुने हुए विजेता के तौर पे मनीआर्डर से भेजे हुए वो २० रुपये का वही  नोट आज भी बनारस में घर में मेरी किसी डायरी में सुरक्षित रखा है. जबकि इस घटना को शायद सत्रह साल हो गया है. अब इसे सनक कहो या पागलपन - ये तो बस ऐसे ही होता है. आदमी कितना भी बड़ा हो जाए - पर दिल तो बच्चा है. वो तो बस अपने अन्दर की ना जाने कौन सी उधेड़बुन में हमेशा उलझा रहता है. उसको कभी पैसे रुपये या आराम शौक ... वगैरह.. से नहीं .. बल्कि बस कुछ भी ऐसा करने में मजा आता है.. बस जिसका कोई कारण नहीं होता है. 

तो जब आदमी खुश होता है, तो वो अपनी खुशी अपने सबसे नजदीकी इंसान से बांटना चाहता है. वो शायद कभी ये बता ना पाए कि उसमें ऐसा क्या ख़ास बात है, कि वो इस ख़ुशी को सबसे बांटने के लिए इस तरह से उत्सुक है. ये इंसान का वो भोला और मासूम रूप होता है. हमको अपने को खुशनसीब समझना चाहिए कि कम से कम हम किसी एक इंसान के इतने करीबी तो बन सके. वरना साथ रहने और ढेर सारा समय साथ गुजरने से भी कभी कभी हम दूर रहते हैं. "कभी दूर कभी पास" - और कभी कुछ लोग दूर रह के भी काफी पास पास और करीब महसूस करते हैं.  - ये कुछ उसी प्रकार से है, जैसे कि बच्चा जब छोटा होता है, तो वो कोई एकदम साधारण सी चीज़ देखता है, और अपने माँ बाप को उस चीज़ की तरफ इशारा कर के उनका ध्यान उस तरफ खींचना चाहता है.. और माँ  बाप उस बात पे खूब खुश हो के उसकी खुशी में शामिल होते हैं. बच्चा और भी खुश हो जाता है. 

Wednesday, January 13, 2010

आज कल इस तरह के निश्छल व्यावहार की कितनी कमी सी है

Ganga Aarti at Varanasi ghats,Image via Wikipedia
हमारे एक बंगलोर के ऑफिस के सहकर्मी इलाहाबाद से गया जाने के वक़्त - प्रोग्राम में कुछ बदलाव की वजह से सुबह से शाम तक के लिए अचानक बनारस पहुंचे. वो खुद थे, उनकी धर्मपत्नी और माता जी  भी उनके साथ थीं. करीब सुबह के वक़्त जब वो बस से बनारस के रास्ते में थे तो उन्होंने अपने प्रोग्राम से मुझे फ़ोन के जरिये अवगत कराया. शाम को उसी दिन उनको मुगलसराय से गया के लिए ट्रेन पकडनी थी. वो लोग वहां पिंड-दान करने जा रहे थे. वैसे बनारस का उनका प्रोग्राम कोई पक्का नहीं था. तो जब  उन्होंने इलाहाबाद से मेरे को अपना ये बदला हुआ प्रोग्राम बताया तो मैंने कहा कि तुम लोग वहां दिन में बनारस में मेरे घर चले जाओ. मम्मी हैं हीं बनारस में. 

ध्यान देने की बात ये थी कि वहां घर पे सिर्फ मम्मी और बुआ जी (जो कुछ दिनों के लिए आई हैं) थी, और मैंने उनसे उनका कोम्फोर्ट भी नहीं पुछा था. कि इस तरह एक दिन के लिए अगर अचानक कोई आ जाए तो उससे कोई असुविधा तो नहीं होगी. बस माँ बाप पे बच्चों का यही विश्वास .. ना जाने ये क्या चीज़ होती है. मेरा मम्मी को फ़ोन पे बताना था.. कि बस मम्मी तुरंत हरकत में आ गईं. मेरे को कितना अच्छा लगा कि आप पूछिए मत. कल को मेरी शादी हो जायेगी और इसतरह से किसी दोस्त को घर पे अचानक बुलाना होगा, तो क्या वही सहयोग प्राप्त हो सकेगा?

मैंने मम्मी से पूछ के उनको नंबर दे दिया. वैसे मैं तो लोगों को घर पे बुलाने से चूकता नहीं. यही कारण है, कि यहीं घर से इतना दूर भी यहाँ मेरी  महफ़िल जमी ही रहती हैं.  तो सब कुछ सेट हो गया... फिर वो बताये अनुसार वहाँ बनारस में शिवपुर स्थित हमारे घर पे पहुँच गए. मम्मी और बुआ ने उन लोगों को उनकी इच्छानुसार विश्वनाथ बाबा और गंगा जी का दर्शन भी करवा दिया. बुआ और मम्मी की मेहमान-नवाजी देख के वो दोस्त एकदम गदगद होगया . वैसे भी उनका भाग्य था.. वरना हम सब तो बस ऊपर वाले के हाथ की कठपुतली हैं. शाम को मम्मी और बुआ ने ससम्मान उनको मुगलसराय के लिए साधन पे बैठा के विदा किया. उसके बाद एस.एम्.एस के जरिये मुझे संछेप में बता दिया . दोस्त ने फ़ोन पे मुझे आभार व्यक्त किया. बुआ जी और मम्मी के लिए वो बस .. कुछ कह नहीं पा रहा था.. जब इंसान को सच्चा स्नेह - बिना आडम्बर का व्यावहार मिलता है - तो यही होता है...आजकल शायद लोग एक दूसरे का इस तरह सम्मान नहीं करते हैं. वहीँ एक अजनबी शहर में  जब इस तरह का सम्मान मिले तो लोगों को आश्चर्य हो - तो ये बड़ी बात नहीं है. वाह!! रे प्रभु...

मेरे को ये नहीं समझ में आता है, कि आज कल इस तरह के निश्छल व्यावहार की कितनी कमी सी है. वरना.. सही मायने में जब भी कोई आता है, तो हमारे घर में  कभी पकवान नहीं बनाया गया होगा - जो भी घर में उपलब्ध है, प्यार से वही मिल बाँट के खाया गया होगा.  आज एक बार फिर मेरा विश्वास इस बात पे और प्रबल  हो गया है कि पैसे से नहीं अपितु सच्चे प्यार से उनको जो खुशी मिलती है, उसका कोई बराबरी नहीं है. लोग अब दूर रहते हैं, उनके पास वक़्त नहीं है, कि वो शनिवार और रविवार को लोगों से मिले. सबके लगता है, कि शायद दूसरे पसन्द ना करें. हम बहुत दूर चले जा रहे हैं. ना जाने किस ओर, किस चीज़ की तलाश में.

जब हम लोग छोटे थे, तब भी हमारे पिताजी लोग , अंकल लोग, सुबह से शाम की ड्यूटी बजाते थे, पर फिर भी, सन्डे को पास - पड़ोसी - सगे संबंधी - रिश्तेदार - नातेदार के लिए वक़्त निकाल ही लिया करते थे. मेरे को याद नहीं कि मेरे घर में कभी किसी के भी आने पे - चाहे वो बता के आये हों या बिना बताये - कि कभी किसी ने जरा भी नाक - भों सिकोडी हो... शायद घर से सीखी हुई यही सब आदत आज घर से इतना दूर रहते हुए भी जीवन जीने का सहारा बनी हुई है.  अपने घर के सभी बड़ों को सत सत नमन.


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