मैं और मेरी पंचायत. चाहे ऑफिस हो, या हो घर हम पंचायत होते हर जगह देख सकते हैं. आइये आप भी इस पंचायत में शामिल होइए. जिदगी की यही छोटी-मोटी पंचायतें ही याद रह जाती हैं - वरना इस जिंदगी में और क्या रखा है. "ये फुर्सत एक रुकी हुई ठहरी हुई चीज़ नहीं है, एक हरकत है एक जुम्बिश है - गुलजार"


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Monday, September 29, 2008

भाग रे भाग, पुलिस

Police in JammuImage via Courtesey - www.boston.com
भाग रे भाग, पुलिस. नुक्कड़ पे नवयुवंको के बीच हो रही गुत्थम - गुत्थी के बीच किसी कि आवाज आई. और बस फिर क्या देखना था. मिनटों में वहाँ लगी भीड़ नदारद. ये कोई आम नजारा नहीं था. अक्सर पुलिस दूसरों के मामलों में दखलंदाजी नहीं करती है, वो पूर्ण लोकतंत्र में भरोसा रखते हुए - नागरिकों में पूर्ण विश्वास दर्शाते हुए, उन्हें अपना झगडा ख़ुद निपटाने कि पूरी आजादी देती है. आजाद भारत देश की आजाद विचारों वाली पुलिस फोर्स. हाँ अगर आप कुछ विशेष आश्वासन चाहते हैं, जैसे कि घटना की सूचना मिलने पर पुलिस घटना-स्थल पर घटना होने के बाद ही पहुंचे तो उसकी भी पूरी सुविधा है - बस आप सम्बंधित थाने में अपनी सिफारिश उचित समय पर उचित सुविधा-शुल्क के साथ जमा करा कर सम्पूर्ण आश्वासन प्राप्त कर ले.

वो तो आज उन लौंडों का दिन ख़राब था, की दरोगा जी अपने कारिंदों के साथ बगल में पुरानी चुंगी पे अपनी जीप किनारे लगा के चाय की चुस्कियां ले रहे थे. अब जीप धीरे -धीरे करीब आई और दो चार सिपाही उतरे और दो लोग दबोचा गए. वो बेवकूफ लोग सेंटी हो के आपस में ऐसे उलझे हुए थे कि उनको पता ही नहीं चला कि कब वो थाने पहुँच गए. अब बात मोहल्ले वालों से उनके घर वालों तक पहुँची. पुलिस में जाना अच्छा नहीं समझा जाता है. वैसे भी पुलिस के पास थाने में इतनी जगह नहीं होती कि वो लोगों को वहाँ ले जाए. दूसरी बात ये कि वो आम जनता को तकलीफ में नहीं डालना चाहती है. क्योंकि आम थाने की बनावट ऐसी होती है, कि उसमें हवालात के अन्दर और बाहर बाहर रहने में ज्यादा अन्तर नहीं होता है. और पुलिस में होकर वैसे ही वो परमानेंट सरकारी सजा भोग रहे होते हैं. अब जनता वहाँ जायेगी और उनकी हालत पे तरस खायेगी - ये उनको अच्छा नहीं लगेगा.

पर हम ये बात थोड़े ही न समझते हैं,. पुलिस चाहे जो कर ले, लोग हैं कि बस पुलिस को ही दोषी ठहराते हैं. दरोगा जी को देखिये - हमेशा आपको राउंड पे ही मिलेंगे. हमारे शहर बनारस में तो मैं न जाने कितनी बार कभी गाड़ी का इंश्योरेंस तो कभी प्रदूषण वाला कागज न रहने से पुलिस के सघन काम्बिंग अभियान का निशाना बना हूँ. आख़िर सब हमारी सुविधा के लिए ही तो वो रात में अचानक मेरी गाड़ी के सामने आ जाते हैं और मेरा दिल उनकी लडखडाती आवाज और चाल को देख के धक्-धक् करने लगता है. अब वो डराना थोड़े ही न चाहते हैं. अब मेरे को यूँ ही डर लगे तो इसमें उनका क्या दोष. जब कभी मेरे पास मेरे गाड़ी से सम्बंधित सारे कागज़ रहते हैं, तो और भी ज्यादा समस्या हो जाती है - एक बार मैंने अपना इंश्योरेंस का कागज़ दिखाया - तो उन्होंने कागज़ को अंधेरे में गौर से देखते हुए पूछा - गाड़ी तुम्हारे नाम है - मैंने कहा - 'जी' - तो उन्होंने कागज़ को मेरी तरफ़ लौटते हुए कहा - ठीक है, इंश्योरेंस का कागज़ दिखाओ. मैंने दरोगा जी से बिना बहस किए हुए कहा - सर, वो शायद आप रजिस्ट्रेशन का कागज़ मांग रहे हैं.. और मैंने एक कागज़ उनकी तरफ़ बढ़ा दिया - उन्होंने बिना कागज़ देखे कहा.. ठीक है - जाओ.

एक बार मैं अपनी रामप्यारी को सरपट दौड़ा रहा था, कि तभी मेरे को हाथ दिखा के रोक दिया गया. ये बंगलोर था और अपनी स्पीड नापने वाली मशीन से लैस नागरिकों की सुविधा के लिए तत्पर पुलिस फोर्स का एक दल था. जो दोपहर के वक्त अपने मिशन पे लगा हुआ था. मुझे गाड़ी किनारे खड़ी करने का निर्देश मिला और एक सिपाही ने तत्परता से मेरे गाड़ी की चाभी निकाल के अपने पास रख ली और मुझे उस मशीन की तरफ़ भेजा गया, जहाँ एक पुलिसवाला उस दूरबीन जैसे मशीन में कुछ तांक-झाँक कर रहा था. उसने कहा - 'देखो'. मैंने अपनी गर्दन अन्दर घुसाई तो दिखा की मेरी रामप्यारी जो कि 48 कि.मी. प्रति घंटे की रफ़्तार से मेरे को बैठा के रोड पे दौड़ रही थी - ये उसकी और मेरी तस्वीर थी. मेरे को बताया गया, की मैंने ४५ कि.मी. प्रति घंटे के ट्रैफिक नियम का उल्लंघन किया है. मैंने कहा सर - थोड़ा सा ही तो ज्यादा है.. प्लीज़ - पर बात न बनी तो मैंने ३०० रुपये सरकारी खाते में जमा करा के आगे बढ़ा. मैंने मन ही मन सोचा की वाह भाई.. क्या तत्परता है... बहुत जल्दी ही बंगलोर से सारी ट्रैफिक समस्या ख़त्म हो जायेगी. लोग बिना बात का ही पुलिस को दोष देते हैं.

अगर आपको हमारी पुलिस और उसकी दिलेरी पे संदेह हो तो आप - ये तस्वीर जरूर देखें. एक अकेला पुलिसवाला अकेले एक डंडा और एक ईंट का पत्थर लिए पूरी भीड़ का अकेले ही सामना कर रहा है - कोई शक ?

Sunday, September 28, 2008

मुंहपिल्लई

Jodhpur, IndiaImage via Google Image Search

'शाबास!', मास्टर साब ने कहा, 'कम से कम तुम्हारी कोई अपनी राय तो है।' अपनी बड़ाई सुन के मेरा सीना गर्व से फूल गया. मास्टर साब ने क्लास में कुछ सवाल पुछा था और जब बहुत से बच्चों ने चुप रहना ही बेहतर समझा - मैं तपाक से बोल पड़ा था - यस सर........ ब्लाह ब्लाह .... और मास्टर साब ने बिना पूरा जबाब सुने ही, मुझे मेरी दिलेरी के लिए शाबासी दे दी. मुझे इस बात का कुछ तब ख़ास मतलब समझ में तो नहीं आया था - 'कम से कम तुम्हारी कोई अपनी राय तो है.' पर ये तो स्पस्ट था - अगर कुछ सवाल पुछा जाय तो जितना झट से हो सके आगे बढ़ - चढ़ के बोलना चाहिए. भले ही ये कहानी तब की है, जब मैं छोटे दर्जे में था , पर बात पते की थी और अन्दर तक घर कर गई थी.

क्लास ६ और ७ में हम लोगों की क्लास करीब एक महीने B.Ed. की मैडम लोग लिया करती थीं. ये उनका प्रैक्टिकल का टाइम होता था. क्लास के वक्त पीछे की बेंच पे उनकी सीनियर मैडम लोग आके बैठा करती थीं. वहीँ क्लास के वक्त ही वो हमारी मैडम लोगों का मूल्यांकन किया करती थीं . हम सारे क्लास के बच्चों को जो हमेशा फटा-फट जबाब दिया करते थे...उनको खूब पसंद किया जाता था. मैडम लोग पहले से समझा दिया करती थीं कि 'देखो!, आज तुम लोग शांत रहना और खूब सही से जबाब देना' - उस दिन मैडम कोई ऐसा चैप्टर पढाती थीं, जो वो पहले पढ़ा चुकी होती थीं. और उनके सवाल पूछने के साथ ही कई हाथ ऊपर खड़े हो जाते थे. सब एक से बढ़कर एक. मैडम भी किसी को निराश नहीं करती थीं. सबको भरपूर मौका दिया जाता था. सवाल वही, पर सबकी अपनी - अपनी राय होती थी और उसकी बड़ी क़द्र की जाती थी. 'वैरी गुड'!




  • ये हमारा सिस्टम है, जिसने मेरे को मुंहपिल्लई करने वाला प्यारा इंसान बना दिया


  • ये स्वयंभू पंचायत हर सप्ताह एक बार जरूर होती है। और हम दोस्त जी भर के मुंहपिल्लई करते हैं।


समय बीतता गया और ये आदत सी बन गई कि चाहे जो भी टोपिक हो, हमें अपनी राय तो रखनी ही होगी. अब वो चाहे वो घर का मसला हो, राजनीति का, सिनेमा का, या फिर ऑफिस से जुड़ी हुई कोई बात हो. अब बस यही गले कि हड्डी बन गई. अब ऐसी आदत सी हो गई है, कि न बोलो तो लगता है, कि गुरु जी का आशीर्वाद नहीं मिलेगा या मैडम जी गुस्सा हो जायेंगी. अब इसका खामियाजा मेरे अगल - बगल वाले भोग रहे हैं. अगर आप ये पढ़ रहे हैं, तो कृपया मेरी बात को समझने कि कोशिश कीजिये. ये हमारा सिस्टम है, जिसने मेरे को मुंहपिल्लई करने वाला प्यारा इंसान बना दिया.

मैं इन निम्न पंक्तियों का उल्लेख करना जरूरी समझता हूँ. क्योंकि इससे बल मिलता है, कि मैं अकेला ही नहीं हूँ. ये हैं राघवेन्द्र जी के लिखे एक पोस्ट से ली गई कुछ पंक्तियाँ

दरअसल ये स्वयंभू पंचायत हर सप्ताह एक बार जरूर होती है। और हम दोस्त जी भर के मुंहपिल्लई करते हैं। इस दौरान हर चीज पर चर्चा होती है - गाँव की पंचायत से लेकर बुश की नीतियों तक पर - गन्ने के खेत में होने वाले प्रेम प्रसंग से लकर हॉलीवुड की हीरोईनों पर.....हर तरह के क़िस्से...।






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Saturday, September 27, 2008

क्षमा

Pardon Us
Pardon Us (Photo credit: Wikipedia)

एक दिन की बात है, 'क्षमा' मेरे सपने में आई. उसको मुझसे कई शिकायत थी. मैंने कहा ठीक है, कहो तुम भी, मैं क्या कर सकता हूँ. जरूरी होगा तो माफी मांग लूँगा. बस बात वहीँ बिगड़ गई. क्षमा ने गरजते हुए कहा की बस मेरी सारी शिकायत की जड़ यही है की तुमने मेरे को अपने बाप का माल समझ रखा है - जहाँ जरा सी बात बिगड़ते देखते हो - तुंरत 'क्षमा' मांग लेते हो. ये क्या बात हुई? मैंने उसे प्यार से समझाने की कोशिश की -देखो! गुस्सा मत हो, मुझको 'क्षमा' कर दो. बात कुछ बनती नहीं दिख रही थी. थोडी देर शांती बनी रही. फिर मैंने थोड़ा साहस दिखाते हुए पुछा - और बताओ मैं तुम्हारी कैसे मदद कर सकता हूँ. क्या कोई जरीया है, जिससे मैं तुम्हारी उलझन दूर कर सकूं? 'क्षमा' उसी प्रकार चुप रही. फिर मैंने चुप्पी तोड़ते हुए कहा. देखो मैं हिसाब किताब का बहुत पक्का हूँ. मैंने जितनी बार क्षमा ली है, उससे न जाने कितनी बार दूसरों को बिना मांगे क्षमा दी भी है. तो हिसाब बराबर हुआ की नहीं?

मेरी बात सुनकर 'क्षमा' ने मुस्कुराते हुए कहा - वाह! गुरु, मुझे गणित मत समझाओ. आख़िर मैं इतनी भी बेवकूफ नहीं हूँ. मैं तुम्हारा खाता देख के बता सकती हूँ, तुमने मेरे ('क्षमा') नाम पे न जाने कितनो को क्षमा किया है. और ज्यादातर समय तुमने बड़ी ही चालाकी से बिना सामने वाले को प्रकट किए ही मन ही मन उसको क्षमा कर दिया है. वाह! भाई वाह! तुमने ये काम न जाने कितनी बार, इतने सफाई से किया है, की किसी को कभी पता ही नहीं चला - और उसकी गिनती तुम्हारे हिसाब - किताब के बहीखाता में भी नहीं है.

और तुम क्या सोचते हो? की मैं बेवकूफ हूँ. तुम इस तरह से मेरे ('क्षमा') को दूसरों को दे के अपना खूब भला कर रहे हो. और मेरे को अपनी इमानदारी के किस्से सुना रहे हो. अपने मानसिक शांती का तुमने बड़ा ही बढियां तरीका खोज निकला है. आज मैं उसी सब का हिसाब किताब करने आई हूँ. अब मैं बुरी तरह फंस चुका था. अच्छा हुआ तभी मेरी नींद खुल गई. वरना आज तो 'क्षमा' से जीतना मुश्किल था.

तलाश जारी है

English: Hindu marriage ceremony from a Rajput...
English: Hindu marriage ceremony from a Rajput wedding. ‪Norsk (nynorsk)‬: Rajput-par i ein hinduistisk vigsel. (Photo credit: Wikipedia)

शुक्रवार का दिन आफिस से जल्दी आने का दिन होता है। पानी बरस रहा था, कम लोग ही बचे थे ऑफिस में। मैं भी जल्दी निकल लिया। मौका नहीं चूकना चाहिए। रूम पे पहुँच कर टीवी चालू कर के अपनी हमेशा की दिनचर्या शुरू की। सोचा कुछ देर टी.वी देखेंगे। कुछ चाय - वगैरह बनायेंगे और बस फिर आराम से खाने का सोचेंगे। 

पर जब आपके शुभचिंतक मित्र हो तो आपको अपने आराम की चिंता उनके ऊपर छोड़ देनी चाहिए। तभी फ़ोन की घंटी बजती है। हमारे एक पुराने मित्र का फ़ोन है। बात हाल चाल से शुरू होती है और फिर जल्द ही वो एक सुझावात्मक मोड़ ले लेती है। वैसे सामान्यतः तो सुझाव लेन-देन का काम लोग अक्सर मेरे साथ करते हैं। मेरे को भी आनंद आता है - जबकि मेरे को अपने ज्ञान का ठीकरा दूसरे के सर फोड़ने का मौका मिलाता है। पर कुछ लोग हैं, जहाँ बात कुछ दूसरी हो जाती है। तो मैं कह रहा था। की बात होते-होते आ जाती है, मेरी जिंदगी के ऊपर। मुझसे सवाल किया जाता है - 'देखो नीरज, अभी तुमको सीरियसली अपनी शादी के बारे में सोचना शुरू कर देना चाहिए' अमूमन मैं ऐसी सपाट सलाह, और वो भी मेरे बारे में, - मैं इसके लिए तैयार नहीं रहता हूँ। मैंने हकलाते हुए कहा 'हाँ भाई, बात तो सही कह रहे हो' फिर मैंने आगे कहा - 'यार, हो जायेगी मेरी भी शादी' - मैंने बेफिक्री के आलम में बात को वहीँ ख़त्म करने के अंदाज में बोला। पर जनाब अभी पूरे मूड में थे और उनको मालूम था की यही मौका है - मेरे को नसीहत देने का।

बात होते होते - चली गई इस बात पे की आख़िर ये क्यों जरूरी है, की हम अपना लाइफ पार्टनर एक ऐसा ढूंढें जो हमको और हमारी घर के माहौल को समझ सके। मेरा तर्क की 'भाई, कुछ चीजें घर वालों पे छोड़ देनी चाहिए' बहुत देर तक ठहर नहीं पाया। अपने तर्कों को बल देते हुए मेरे श्रीमान मित्र ने कहा की अभी शादी के लिए सही लड़की का मिलना बहुत ही जरूरी है। फिर बड़े ही कविवर अंदाज में उन्होंने बोला - 'देखो! हो सकता है, की तुम्हारी बीवी ऐसी आ जाए, जो की कल को जब तुम मुझसे इतनी देर तक बात करो , तो वो इसपे ऐतराज करे' मैंने कहा - 'वाह! भाई वाह! कोई घर की खेती है क्या?' मैं साफ़ -साफ़ मन कर दूंगा - की ये मेरा दोस्तों का मामला है और तुम इसमें दखलंदाजी मत करो। मेरी बात ख़तम होने के पहले ही मेरे मित्र ने तपाक से बोला - 'और वो तुम्हारी बात मान जायेगी' फ़ोन के पीछे के मुस्कराहट और तड़प मैं महसूस कर सकता था। फिर दोनों तरफ़ से हंसी का फौवारा छूट पड़ा.

उनकी शादी हुए २ साल होने को है। मैंने ध्यान दिया कि मेरी उनसे हमेशा ही बात तभी होती है जब वो ऑफिस और घर के बीच में होते हैं। मैंने फिर उनकी बात से सहमती जताते हुए कहा - अच्छा करते हो दोस्त कि तुम रास्ते में ही बात कर लेते हो। कभी वो भी मेरी तरह समझदार हुआ करते थे। अब वो शादी-शुदा हैं। और किसी भी तरह चाहते हैं की मैं सही कदम उठाऊँ। मैं तो यही समझता था की वो एक सुपरमैन हैं और उन्होंने अपनी जिंदगी में काफी सोच समझ और प्लानिंग कर के कदम उठाये हैं। मेरी तो कई जिंदगी नप  जायेगी उसके आधे लेवल तक भी पहुँचने में. काफी कुछ दूसरों के अनुभव से सीखने को मिलता है, पर मैं क्या करू अब ऐसा कौन सा सिस्टम है , जो की इस तरह से आपकी पसंद के अनुसार आपकी मनोकामना पूरी कर सकता है।


मैंने एक बार कहा की मैं तो बस बजरंगबली का नाम ले के कूद जाऊँगा - बाकी वो संभाल लेंगे। जबाब आया - 'बेटा! बजरंगबली भी उन्हीं की सहायता करते हैं, जो अपनी सहायता स्वयं करता है। ठीक है - तलाश जारी है.

Thursday, September 25, 2008

माँ तुमको नमन

The five principal characters during an argume...
The five principal characters during an argument. Episode: "The Can Opener" (Photo credit: Wikipedia)

माँ के पास हर समस्या की कुंजी होती है. हम चाहे जितने भी बड़े हो जाएँ, हमारी शादी हो जाए, बच्चे हो जाएँ - पर हमारी जिंदगी के हर मोड़ पे माँ हमेशा उसी तरह हमारी सहायता को तैयार रहती है, जैसे जब हम छोटे थे. उसके बच्चे उसके लिए दुनिया के सबसे अच्छे बच्चे होते हैं. यही से बच्चों में अपने पर विश्वास होता चला जाता है. जब भी कभी हम हारा और थका हुआ महसूस करते हैं. माँ का सहारा सबसे बड़ा सहारा बनता है.

माँ पता नहीं किस मिटटी की बनी होती है. कभी बच्चे उसका दुःख न भी पूछें तो भी वो कभी पलट के बच्चों पे अपना हक नहीं जताती. बस वो तो दूर से ही बच्चों को खुश और तरक्की करते देख के खुश होती है. खास बात ये है की कभी मैंने शिकायत करते नहीं सुना है. ऐसा नहीं की बच्चो में कोई कमी नहीं होती है. बस माँ की आँखें हमेशा अच्छी चीजें ही देखती हैं. ये एक बहुत ही बड़ा 
गुण् है.

माँ के बारे में एक और ख़ास बात ये है, की चाहे आप किसी भी नस्ल के हों, दुनिया के किसी भी भाग में हों. माँ कहने पे लोगों में उसी प्रकार का आदर भाव प्रकट होता है. मेरे को याद है, की मैं एक सीरियल देख रहा था. ये एक अमेरिकन फॅमिली का कॉमेडी ड्रामा था. मेरे को बहुत ही पसंद है. धारावाहिक का नाम है - 'Everybody Loves Raymond' - इसी की एक कड़ी में नायक को दिखाया जाता है, की वो बहुत ही परेसान है,. कारण कि - शहर कि एक हस्ती है, और वो उससे hate (घृणा) करता है. तो ये एकदम कॉमेडी सीन है. दिखाया जाता है, कि किस तरह से उसकी बीवी और दोस्त उसको कंसोल (समझाने ) की कोशिश कर रहे हैं. फिर सीन आगे बढ़ता है. बगल में ही उसके माँ बाप का भी घर है. अगले सीन में वो हताश सा अपने माता - पिता के घर में बैठा है. अब देखिये - उसकी माँ लगातार पूछती है, बोलो Ray (नायक का नाम रे है ) , क्या बात है. अब नायक सोच रहा है, कि मैं माँ को क्या बताऊँ - वो क्या समझेगी. पर नहीं .. माँ को तो जैसे संतोष ही नहीं, जब तक वो ये जान न ले. अरे भाई जबकि नायक कोई छोटा बच्चा तो है नहीं. फिर वो बताता है, कि फलां आदमी है, और उसको पता चला है कि वो उसको घृणा करता है, और वो इस बात को सोच के बहुत ही परेसान है. माँ बोलती है, बस! ले आ, मेरे को नम्बर दे मैं २ मिनट उससे बात करुँगी और सब ठीक हो जायेगा. नायक कहता है, नहीं माँ रहने दो.. माँ फ़ोन तक पहुँच के एकदम बेझिझक फ़ोन उठा भी लेती है. पर फिर अपने लड़के के जोर देने पे माँ जाती है. पर फिर भी वो अपने बच्चे को बताती है, कि बेटा कोई तुमसे घृणा कर ही नहीं सकता है. तू परेसान मत हो. अब आप ही बताइये, न तो उसकी माँ अपने बच्चे के ऑफिस के बारे में जानती है, न तो वो किससे बात करने जा रही है, उसी को जानती है, पर वो हर तरह और हर परिस्थितियों के लिए तैयार है. है न माँ एकदम अलग.

ध्यान देने कि बात ये है, कि ये एक अमेरिकन फॅमिली के घर का चित्रण है. हमें अपने देश में ऐसे सीन हमेशा देखने को मिल जाते हैं. तो माँ हमेशा हर जगह एक है. बस महसूस करिए. माँ का दिल वही है. अब आपने देखा होगा, कि माँ किसी भी हद तक जा सकती है, अपने बच्चों के दुःख को दूर करने के लिए. अपने बच्चों का उतरा हुआ चेहरा देख कर ही माँ को सबसे ज्यादा दुःख होता है. अगर हम खुश रहें - तो शायद माँ खुश रहेगी.

एक और किताब पढ़ रहा था, जो एक सफल व्यक्ति कि जीवनी पे आधारित थी. एक जगह लिखा है - लेखक, जो कि एक प्राइवेट कंपनी में काफी बड़े ओहदे पे काम करता है, वो फ़ोन पे अपने बॉस से बात कर रहा है, और इतना उखड जाता है, कि बस वो सोच लेता है, कि अब बस और नहीं हो पायेगा. आगे कभी वो अब वहां काम नहीं कर पायेगा. वहीँ उसकी माँ भी रहती है, वो उसको समझाती हैं, और वो उनकी सलाह पे काम करता है. उन्होंने आगे लिखा कि, वो अगले दिन बॉस से मिलते हैं और फिर से 
नई शुरुवात होती है. और माँ कि सलाह उनके बहुत काम आती है. आगे जा के उन्होंने एक किताब लिखी जिसमें उन्होंने अपनी माँ के ऊपर २-३ चैप्टर में बहुत ही बढियां वर्णन किया है. उनके संघर्स और हार न मानाने कि पूरी कहानी है.

ऐसे ही न जाने कितने ही किस्से हैं - माँ के बारे में. बस जो समझ में आया लिख दिया.

जैसी दुनिया वैसे लोग

Mote Log...Image via Wikipedia

पहली बात सेहत की। तो मैं बताऊँ की मैं यहाँ आने के पहले जो समझता था की मोटापा क्या होता है, तो मैं ग़लत था . गज़ब गज़ब के मोटे मोटे आदमी और औरतों को देखा. क्या सेहत है भगवान् की दुआ से. भगवान् बनाए रखें. मैं तो पहले उन लोगों से सवाल करना चाहता हूँ, जिन्होंने मेरे को मोटा कहा है. भाई मैं तो उतना मोटा हो ही नहीं सकता. मस्ती में झूमते हुए चलते हैं. वाह मालिक तेरी बसाई दुनिया भी क्या गज़ब है :)


दूसरी बात मैंने देखा है उन लोगों को, जो की सिर्फ़ काम करते हैं. मेरा मतलब मजदूरों से नहीं है, बल्कि उन लोगों से है जो की हम लोगों की तरह ही technical काम करते हैं. तो इन टेक्नीकल लोगो के चेहरे को देख कर एक ख्याल आता है. चिरकुट ख्याल. इन सारे लोगों का चेहरा जब भी मैं देखता हूँ तो मुझको क्या लगता है - लीजिये सुनिए. हम लोग जो technical किताबें पढ़ते हैं , अक्सर उनके पीछे उसके लेखक की फोटो छपी रहती है. एकदम उन लोगों के ही भाई बहन लगते हैं ये लोग. और ये लोग बातें कैसे करते हैं? एक बात, की जब ये लोग बातें शुरू करेंगे तो एकदम उसी में डूब के बातें करते हैं. एकदम core technical बातें ... ह्म्म्म्मं.. बिना दायें बाएँ सोचे. काफी नया experience है. हम लोग काफी दुनियादारी का ख्याल रखते हुए ही टेक्नीकल बातें भी करते हैं. Culture है क्या करें?

तीसरी बात मैंने जो notice की है वो ये है, की सबको अपने बॉस से उतना ही डर लगता है, चाहे वो कोई जगह हो. लोगों से जानकारी लेने के लिए उसी तरह से चिरौरी करनी पड़ती है. लोगों को गुस्सा भी एक तरह से ही आता है. कुछ लोग बहुत सेंसिटिव होते हैं तो कुछ लोग एकदम घांघ. हर जगह कुछ लोग बहुत helpful होते हैं तो कुछ लोग अहम् का दूसरा रूप.

वैसे चौथी और सबसे अजीब बात ये है की मैं एक ऐसी जगह हूँ जहाँ कि सिर्फ़ मैं ही हूँ जो कि coding नहीं कर रहा हूँ.. वरना नजर उठा के देखता हूँ तो काफी उमर-दराज लोगों कि एक लम्बी फेहरिस्त है, और सभी कंप्यूटर खोल के कोडिंग कर रहे हैं. अजीब बात लगती है. अभी मेरा जो काम है, और मैं जिस काम से यहाँ हूँ, वो थोड़ा अलग है, वो बात तो समझ में आती है. पर फिर भी एक इंसान का जो basic चरित्र होता है वो इतना जल्दी तो नहीं न बदल सकता. अब इसमें किसका दोष है कि मैं जहाँ हूँ, वो जगह पूरी तरह से technical लोगों से भरी हुई है. सभी लोग उसी तरह कोडिंग का काम कर रहे हैं, जैसा की हम लोग करते हैं. तो मैं अक्सर confuse हो जाता हूँ. पर एक अन्तर है, वो ये है, की इन सारे लोगों की उमर काफी ज्यादा है. अपने यहाँ इस उमर में लोग ज्यादातर कोडिंग का काम नहीं करते हैं या ये कहो कि इज्ज़त कि बात हो जाती है. अगर पसंद हो तो system बहुत उमर हो जाने पे दूसरा काम दे देता है. आप चाह के भी या ये कहिये कि चाहत develop हो ही नहीं पाती है. पर यहीं तो यहाँ की अच्छी बात है , की जिसको जो पसंद है वो उस काम को करने के लिए आजाद है.ये तो रही कुछ ज्ञान की बातें :) जैसी दुनिया वैसे लोग


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Wednesday, September 24, 2008

देशी

Eyes (Varanasi India)Image by Loksatta via Google Images

देशी - ये शब्द जब आप सुनते हैं, तो आपके दिमाग में क्या ख्याल आता है सबसे पहले - सोचिये ... सोचिये.... हाँ हाँ..... तब तक मैं आपको अपने ख्याल के बारे में बताता हूँ।

.देशी दारू

. देशी मुर्गा (माफ़ कीजिये अगर आप शाकाहारी हैं )

.देशी घी

. देशी आलू वगैरह, वगैरह ..... ..... ....

मैं यहाँ एक सज्जन से मिला जो की नस्ल और नागरिकता दोनों के लिहाज से अमेरिकन थे। हमारे हिंदुस्तान देश के बारे में उनकी जानकारी मेरी अमेरिका के बारे में जानकारी से कुछ कम नहीं थी। अक्सर उनसे वार्तालाप हो जाया करता था। क्योंकि मैं सवाल कम करता था और सहमती में गर्दन ज्यादा हिलाया करता था। लम्बी उपयोगी बातचीत के लिए बहुत जरूरी है की आप अपनी गर्दन और आंखों का ज्यादा उपयोग करें और मुहं का कम

वो मेरे को बता रहे थे कनाडा देश के बारे में और वहां क्या है , कैसा देश है इत्यादि। बातों बातों में उनको याद आया, और उनहोंने मानो मुझे याद दिलाते हुए कहा - 'hey you are single, right?' (हे तुम कुंवारे हो... सही है न ?). मैं भी जैसे नींद से जागा। जब से यहाँ आया हूँ, शायद ये भी भूल गया था कि मैं कुंवारा हूँ। ग़लत मतलब मत निकालिएगा . मेरा मतलब है की काम में वक्त ही नहीं मिला . तो मैं भी मुहं निपोर के हंस दिया। जैसे मैं मानो मुझे बहुत गर्व हो। हाँ , तो उन्होंने मेरे अल्प-ज्ञान में वृद्धि करते हुए बताया कि - you know, you will find lots of deshi there. Its good. You are single - that's make it more interesting (अरे वहाँ तुमको बहुत देशी मिलेंगे। )। मैंने फिर दांत निकल दिए - बात समझ में तो आई नहीं, पर साबित भी तो नहीं न कर सकते हैं न। मैंने सोचा - वो कनाडा के देशी-वासियों को देशी कह रहे हैं।

फिर अभी ३ हफ्ते पहले मैं घूमने के लिए अपने एक मित्र के यहाँ इस विदेश के दूसरे किसी भाग में गया था। अच्छा अनुभव था। मैंने ध्यान दिया, कि वो मेरा दोस्त जो यहाँ काफी समय से है - बार बार बात-बात में कह रहा था -- जानते हैं, नीरज भाई-इधर इस एरिया में देशी लोग खूब है। मैंने एक पल सोचा - कि यार ये क्या बात हुई - हर देश में उस देश के लोग होते है। देशी। पर थोडी देर में मैंने अपने मित्र को जब इसका उपयोग करते देखा तो सारी बात मेरी समझ में आ गई.

वो हिन्दुस्तानी , पाकिस्तानी इत्यादि साउथ एशिया के लोगों को 'देशी' कह के संबोधित कर रहा था। ये वहां बहुत सामान्य बात थी। मैंने फिर भी एक बार सोचा की चलो कन्फर्म किया। लूँ. मेरा अंदाजा सही था. फिर मेरे नजर के सामने उन अमेरिकन सज्जन का कुटिल मुस्कान वाला चेहरा घूम गया - जब वो मेरे को कनाडा में 'देशी' खूब हैं का मतलब समझा रहे थे. मुझे अब मतलब समझ में आ गया था। जाहिर था, ये 'देशी' कोई इज्जत वाला शब्द नहीं था। एक slang था । हाँ मैं देशी था। देशी हूँ। और देशी रहूँगा.

वो लोग जब हमारे देश में आते हैं तो हम उन्हें अंग्रेज या विदेशी कहते हैं।हम अपने देश में भी देशी होते हैं और उनके देश में भी। बड़ा अजीब लगा जान कर.

अक्सर विदेशी नस्ल के कुत्तों को हम नाम दे के बुलाते हैं - जैसे अल्शेशियन, डाबर मैंन और जर्मन शेफ्फार्ड इत्यादि कुत्तों के अलग - अलग नाम होते हैं, पर अपने यहाँ अपने वतन में जन्मे कुत्ते का कोई नाम नहीं होता है - कोई पूछता है - भाई कौन सा कुत्ता है तुम्हारे घर पे, और मैं बगलें झांकते हुए दांत निपोर के कहता हूँ, जी बस यूँ ही 'देशी' हैं.



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Monday, September 22, 2008

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

विदेश - अनुभव

seatedImage by anjan58 via Flickr यहाँ विदेश में मैं हूँ अभी कुछ वक्त के लिए, बड़ी ही नई - नई चीजें देखने को मिलती हैं। कुछ चीजें जो की हम लोग भी अपने देश में अपना सकते हैं।

- बड़ी सफाई है, भाई यहाँ पैर। लोग सड़क गंदी नहीं करते हैं। अगर कुत्ता टहला रहे हैं, और रास्ते में उसने कर दिया तो वो लोग ख़ुद ही साफ़ करते हैं।

- ट्रैफिक नियम लोग ख़ुद ही बड़ी ही तत्परता से पालन करते हैं। अब कारण चाहे जो हो।

- लोग हार्न नहीं बजाते हैं, पीछे से। तो अगर, ये लोग हिन्दुस्तान के किसी शहर में पहुंचे गाड़ी ले के, तो समझो हो गया इनका हैप्पी बर्थडे।

मैं एक चीज से यहाँ बहुत ही हैरान हूँ, और वो है अपने आप को लेके। मैं एक चलती फिरती liability बन गया हूँ। कारण ये है, की यहाँ गाड़ी जो मैंने रेंट (किराए) पे ली है, उसका अगर मैं इंश्योरेंस लेने के बारे में सोचूँ तो कंपनी यहाँ मेरे को जो खाने पीने के लिए देती है, वो सब भी नाप जायेगा और तब भी मैं कवर नहीं होऊंगा।

मैं जब भी रोज गाड़ी निकालता हूँ, तो एक बार हनुमान चालीसा जरूर पढ़ लेता हूँ, की हे भगवान्! कहीं कोई सिरफिरा मेरे गाड़ी में ठोंक न दे। वरना मैं तो सरे आम नीलाम हों जाऊँगा। अब भाई। ये है न बड़ी बात। रोज मैं गाड़ी दौड़ा रहा हूँ, भगवान् के नाम पे। इन सब चीजों को कोई नहीं समझेगा। लोग तो सोचते हैं, की बन्दा मजे कर रहा है। यहाँ लगी पड़ी है, उसका क्या?

फिर यहाँ मेडिकल , इंश्योरेंस, पढ़ाई कितनी मंहगी है, की मत पूछिए। अब आते हैं, लेबर के ऊपर। अगर यहाँ सफाई का काम मिल जाए तो शायद मेरे को जितना मेरी कंपनी खर्चे पानी के लिए देती है, उससे कईयों गुना कमा के रख दूँ. रहने दीजिये एक रसोई में सफाई करने वाली बाई भी हर घंटे का एक H1 पे काम कर रहे सॉफ्टवेर इंजिनियर से ज्यादा कमाती है। मेरी तो बात ही छोड़ दे।

संसाधनों का सही उपयोग करें

Desert herdsman (India)Image by Ahron de Leeuw via Flickr
मैंने एक बात बहुत गौर की है, वो ये की, हमारे बड़े बुजुर्गों ने जो कहा है,वो बड़े ही काम की बाते कहीं है। मैं अपने दादा जी के बहुत ही करीब रहा हूँ। वो अब हमारे बीच नहीं हैं, पर उनकी कही हुई छोटी -छोटी बातें आज भी मेरे कितने काम आती हैं, की मैं क्या बताऊँ।

जैसे एक बार मैंने बाबा (हम लोग अपने दादा जी को 'बाबा' कह कर बुलाया करते थे ) को देखा की वो बहुत ही प्यार से बोल रहे थे, बेटा! पानी इस तरह मत बरबाद करो। जो कुछ अभी है तुम्हारे पास उसको समभाल के खर्च करना चाहिए। उस वक्त मेरे को बहुत कुछ समझ में नहीं आता था। मैं बहुत छोटा था। शुरू से ही उनका दुलारा था। तो वो मेरे को कभी डांटते नहीं थे, बल्कि प्यार से समझाते थे। फिर उन्होंने आगे कहा - कि, देखो बेटा मैं कितनी ही जगह रहा। न जाने कई बार ऐसी जगहों पे भी रहना पड़ा, जहाँ की सही से साफ़ पानी और साफ़ सुथरे हाथों से २ रोटी भी मुश्किल से मिलती थी। पर भगवान् का शुक्रिया था, की हमेशा मेरे को कभी किसी चीज की कमी नहीं हुई। शायद इसीलिए की मैंने कभी भी संसाधनों का दुरुपयोग नहीं किया। उन्होंने फिर अपने उन पुराने दिनों को बताया जब वो रेतायार्मेंट के बाद कोरापुट (ओडिसा का एक आदिवासी इलाका) में डब्लू.एच.ओ (W.H.O) की तरफ़ से काम करने को गए थे। वहां भी उनको नसीब से एक ऐसा होटल मिला था, जो की बाबा को बड़ी ही इज्ज़त के साथ साफ़ - सुथरे तरीके से अच्छे से रोटी पका के खिलाता था। इस तरह की कई कहानियाँ हैं।

आज जब मैं बड़ा हो गया हूँ, तो मैंने बाबा की इस बात को दिमांग और अपने दिनचर्या में पूरी तरह से उतार लिया है। फिजूलखर्ची और चीज़ों की बर्बादी से मेरे को सख्त नफरत है। और इसी का नतीजा है, की आज मैं ५ सालों से साउथ इंडिया में हूँ, पर न तो मेरे को कभी रोटी और न ही मनपसंद खाने की ही कमी पड़ी। चेन्नई , जहाँ के नाम से लोग कांपते हैं, की वहाँ तो कुछ नहीं है। वहां भी भगवान् की दया से, एक बहुत ही नेक अम्मा मिल गई, उनका नाम जया था। उन्होंने दिल लगा के २ साल मन लगा के खाना बना के खिलाया। और हम लोग तो लंच बॉक्स भी लेके ऑफिस जाया करते थे। क्या थाट के दिन थे।

फिर बंगलोर में भी कभी होटल में खाना नहीं खाना पड़ा। संजीत मिल गया। और जब मैं अब कुछ समय के लिए बोस्टन आया हूँ, तो यही सब सोच रहा था। जहाँ होटल में मैं रह रहा हूँ, वहीँ से कुछ दूरी पे एक इंडियन ग्रोसर्री की दुकान है। सब कुछ मिल जाता है। वरना इस परदेश में तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था।

और सब मिलाजुला के बात यहीं है , की अगर आप अपने संसाधनों का सही उपयोग करेंगे, तो भगवान् भी आपकी सहायता करता है, वो आपके लिए रास्ते खोलता जाता है.
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काश ! जात बदलने का भी प्रावधान होता

Phra That Phanom, Nakhon Phanom ProvinceImage via Wikipedia
अभी मैं जात-पात के बारे में कुछ लिखना चाह रहा था। मेरे दिमाग में ये ख्याल काफी दिनों से है, की आख़िर ये जात-पांत के नियम कानून हर धर्म में इतने कड़े क्यों बनाये गए हैं। मेरे पास कुछ जबाब नहीं है, बल्कि कुछ प्रश्न हैं।

मैंने ध्यान दिया है, की अगर आप हिंदू हैं और अगर आपको किसी ने ईसाई बना दिया है, यानी की आपका धर्म - परिवर्तन कर दिया है, तो तमाम ऐसे नियम कानून हैं, हिंदू धरम में , और वो कुछ पूजा पाठ करते हैं, और फिर बस आप वापस हिंदू बन जाते हैं। हमारा संविधान भी शायद इस पंचायत के बारे में ज्यादा कुछ नहीं कर सकता है।

मैं सवाल ये कर रहा हूँ, की क्या कोई ऐसा नियम - कानून है, की अगर मैं एक जाती का हूँ, तो कुछ पूजा पाठ करवा के अपनी ज़ाति बदल दूँ। काश की ऐसा हो पाता, तो न जाने इस देश ही नहीं, बल्कि इस विश्व से एक बहुत बड़ी समस्या का अंत हो जाता। सवाल बहुत ही सीधा है, अगर धरम को बदल का एक इंसान वापस आ सकता है। धर्म इसकी इजाज़त देता है, तो आख़िर जाति - परिवर्तन क्यों नहीं स्वीकार सकते हैं हम लोग। बड़ा अजीब नियम है ये भाई। मेरी समझ में तो नहीं आता है। बस अपनी सुविधा-अनुसार लोगों ने बना रखा है। न जाने कितनी बार, संहार हुआ है, लड़ाईयां हुई हैं , एक नस्ल को मिटने में। और न जाने अभी ये सब कब तक चलेगा.

मैं हमेशा एक पंक्ति दोहराता हूँ।
जिंदगी बहुत छोटी है मोहब्बत के लिए,
न जाने लोग कैसे निकाल लेते हैं वक्त नफरत के लिए


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मैं पंचायत नहीं कर पा रहा हूँ.

My PanchyatnamaImage via Google Image Search
मैं अब और नहीं रोक सकता. पता नहीं क्या हुआ है, जब से देश से कुछ समय के लिए बाहर आना हुआ है. नहीं, नहीं, मेरे को देश निकाला नहीं दिया गया है. पर ये कुछ कम टोर्चेर नहीं है मेरे साथ. साला एक होटल के कमरे में बंद कर के रख छोडा है, मेरी सारी रचनात्मत्कता (creativity) की वाट लगा दी. मैंने भी इसका करार जबाब देने की सोची है. आख़िर कब तक मैं पंचायत से दूर रह सकता हूँ.

लोगों ने सलाह दी, अंग्रेजों को फंसाओ. अरे यार, उन लोगों का नाम मत लो. एकदम मुश्किल काम है. उन लोगों के मजाक करने के तरीके या यूँ कहिये की पंचायत करने के तरीके थोड़ा अलग हैं. पर अगर पानी सर के ऊपर से निकल गया तो मैं उसे भी अपनाऊंगा. अभी तो मैं एक काम कर रहा हूँ, वो ये है की, सबसे पहले हिन्दी में लिख कर ही अपने देशी भाइयों और .... से संपर्क साबित करना चाहता हूँ. फिर आख़िर मैं भी इंसान हूँ.

पंचायत बैठ चुकी थी मेरे घर पे. सारे फुरसतिया लोग जिनको शनिवार - रविवार को सड़कों और शौपिंग सेण्टर के बजाय अपने या किसी के घर, या चाय की दुकाने ज्यादा रास आती हैं, वो अपनी जगह ले चुके थे. मैंने भी चाय पानी का इंतजाम कर के माहौल बनने में कोई कसर नहीं रख छोडी थी. महफ़िल धीरे - धीरे रंग में आ रही थी. आज चर्चा का विषय था - बदलता समय और उसकी चुनौतियां. सभी हम उम्र लोग ही थे और सबके अपने - अपने विचार. मैंने भी अपने अनुभव के आधार पे कुछ बातें रखीं. जब लोग एकदम चुपचाप होके मेरी बात सुन रहे होते हैं, तो मैं बीच में अक्सर पूछ लिया कहता हूँ, कि जनाब! बताएं अभी - अभी मैंने क्या कहा. ये लोगों को नींद से जगाये रखने के लिए बहुत ही जरूरी है.

इस तरह की मीटिंग का कोई अंत नहीं होता है. सभी सम्मिलित लोग जानते हैं कि ये एक पूरा टाइम पास का जरिया है. पर फिर भी ये एक ऐसा नशा है, कि एक बार लग जाए तो बस पूछो मत. अक्सर हमारे अन्दर का समझदारी का कीडा किसी को काटने के लिए बेचैन रहता है. ऐसे मंच पे कही गई बात को कभी कोई सीरियसली नहीं लेता है, पर फिर भी कई बार ऎसी बातें हो जाती हैं जो आपके जीवन को बदल सकती हैं.

तो ये रही मेरी इस ब्लॉग की शुरुवात. मैं वैसे काफी समय से इंग्लिश में ब्लॉग्गिंग कर रहा हूँ. और अब आज से सिर्फ़ हिन्दी में ब्लॉग के लिए मैंने इसे मध्यम बनाया है. देखिये - कैसा रहता है ये सफर.
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