मैं और मेरी पंचायत. चाहे ऑफिस हो, या हो घर हम पंचायत होते हर जगह देख सकते हैं. आइये आप भी इस पंचायत में शामिल होइए. जिदगी की यही छोटी-मोटी पंचायतें ही याद रह जाती हैं - वरना इस जिंदगी में और क्या रखा है. "ये फुर्सत एक रुकी हुई ठहरी हुई चीज़ नहीं है, एक हरकत है एक जुम्बिश है - गुलजार"


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Monday, September 22, 2008

संसाधनों का सही उपयोग करें

Desert herdsman (India)Image by Ahron de Leeuw via Flickr
मैंने एक बात बहुत गौर की है, वो ये की, हमारे बड़े बुजुर्गों ने जो कहा है,वो बड़े ही काम की बाते कहीं है। मैं अपने दादा जी के बहुत ही करीब रहा हूँ। वो अब हमारे बीच नहीं हैं, पर उनकी कही हुई छोटी -छोटी बातें आज भी मेरे कितने काम आती हैं, की मैं क्या बताऊँ।

जैसे एक बार मैंने बाबा (हम लोग अपने दादा जी को 'बाबा' कह कर बुलाया करते थे ) को देखा की वो बहुत ही प्यार से बोल रहे थे, बेटा! पानी इस तरह मत बरबाद करो। जो कुछ अभी है तुम्हारे पास उसको समभाल के खर्च करना चाहिए। उस वक्त मेरे को बहुत कुछ समझ में नहीं आता था। मैं बहुत छोटा था। शुरू से ही उनका दुलारा था। तो वो मेरे को कभी डांटते नहीं थे, बल्कि प्यार से समझाते थे। फिर उन्होंने आगे कहा - कि, देखो बेटा मैं कितनी ही जगह रहा। न जाने कई बार ऐसी जगहों पे भी रहना पड़ा, जहाँ की सही से साफ़ पानी और साफ़ सुथरे हाथों से २ रोटी भी मुश्किल से मिलती थी। पर भगवान् का शुक्रिया था, की हमेशा मेरे को कभी किसी चीज की कमी नहीं हुई। शायद इसीलिए की मैंने कभी भी संसाधनों का दुरुपयोग नहीं किया। उन्होंने फिर अपने उन पुराने दिनों को बताया जब वो रेतायार्मेंट के बाद कोरापुट (ओडिसा का एक आदिवासी इलाका) में डब्लू.एच.ओ (W.H.O) की तरफ़ से काम करने को गए थे। वहां भी उनको नसीब से एक ऐसा होटल मिला था, जो की बाबा को बड़ी ही इज्ज़त के साथ साफ़ - सुथरे तरीके से अच्छे से रोटी पका के खिलाता था। इस तरह की कई कहानियाँ हैं।

आज जब मैं बड़ा हो गया हूँ, तो मैंने बाबा की इस बात को दिमांग और अपने दिनचर्या में पूरी तरह से उतार लिया है। फिजूलखर्ची और चीज़ों की बर्बादी से मेरे को सख्त नफरत है। और इसी का नतीजा है, की आज मैं ५ सालों से साउथ इंडिया में हूँ, पर न तो मेरे को कभी रोटी और न ही मनपसंद खाने की ही कमी पड़ी। चेन्नई , जहाँ के नाम से लोग कांपते हैं, की वहाँ तो कुछ नहीं है। वहां भी भगवान् की दया से, एक बहुत ही नेक अम्मा मिल गई, उनका नाम जया था। उन्होंने दिल लगा के २ साल मन लगा के खाना बना के खिलाया। और हम लोग तो लंच बॉक्स भी लेके ऑफिस जाया करते थे। क्या थाट के दिन थे।

फिर बंगलोर में भी कभी होटल में खाना नहीं खाना पड़ा। संजीत मिल गया। और जब मैं अब कुछ समय के लिए बोस्टन आया हूँ, तो यही सब सोच रहा था। जहाँ होटल में मैं रह रहा हूँ, वहीँ से कुछ दूरी पे एक इंडियन ग्रोसर्री की दुकान है। सब कुछ मिल जाता है। वरना इस परदेश में तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था।

और सब मिलाजुला के बात यहीं है , की अगर आप अपने संसाधनों का सही उपयोग करेंगे, तो भगवान् भी आपकी सहायता करता है, वो आपके लिए रास्ते खोलता जाता है.
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