
भाग रे भाग, पुलिस. नुक्कड़ पे नवयुवंको के बीच हो रही गुत्थम - गुत्थी के बीच किसी कि आवाज आई. और बस फिर क्या देखना था. मिनटों में वहाँ लगी भीड़ नदारद. ये कोई आम नजारा नहीं था. अक्सर पुलिस दूसरों के मामलों में दखलंदाजी नहीं करती है, वो पूर्ण लोकतंत्र में भरोसा रखते हुए - नागरिकों में पूर्ण विश्वास दर्शाते हुए, उन्हें अपना झगडा ख़ुद निपटाने कि पूरी आजादी देती है. आजाद भारत देश की आजाद विचारों वाली पुलिस फोर्स. हाँ अगर आप कुछ विशेष आश्वासन चाहते हैं, जैसे कि घटना की सूचना मिलने पर पुलिस घटना-स्थल पर घटना होने के बाद ही पहुंचे तो उसकी भी पूरी सुविधा है - बस आप सम्बंधित थाने में अपनी सिफारिश उचित समय पर उचित सुविधा-शुल्क के साथ जमा करा कर सम्पूर्ण आश्वासन प्राप्त कर ले.
वो तो आज उन लौंडों का दिन ख़राब था, की दरोगा जी अपने कारिंदों के साथ बगल में पुरानी चुंगी पे अपनी जीप किनारे लगा के चाय की चुस्कियां ले रहे थे. अब जीप धीरे -धीरे करीब आई और दो चार सिपाही उतरे और दो लोग दबोचा गए. वो बेवकूफ लोग सेंटी हो के आपस में ऐसे उलझे हुए थे कि उनको पता ही नहीं चला कि कब वो थाने पहुँच गए. अब बात मोहल्ले वालों से उनके घर वालों तक पहुँची. पुलिस में जाना अच्छा नहीं समझा जाता है. वैसे भी पुलिस के पास थाने में इतनी जगह नहीं होती कि वो लोगों को वहाँ ले जाए. दूसरी बात ये कि वो आम जनता को तकलीफ में नहीं डालना चाहती है. क्योंकि आम थाने की बनावट ऐसी होती है, कि उसमें हवालात के अन्दर और बाहर बाहर रहने में ज्यादा अन्तर नहीं होता है. और पुलिस में होकर वैसे ही वो परमानेंट सरकारी सजा भोग रहे होते हैं. अब जनता वहाँ जायेगी और उनकी हालत पे तरस खायेगी - ये उनको अच्छा नहीं लगेगा.
पर हम ये बात थोड़े ही न समझते हैं,. पुलिस चाहे जो कर ले, लोग हैं कि बस पुलिस को ही दोषी ठहराते हैं. दरोगा जी को देखिये - हमेशा आपको राउंड पे ही मिलेंगे. हमारे शहर बनारस में तो मैं न जाने कितनी बार कभी गाड़ी का इंश्योरेंस तो कभी प्रदूषण वाला कागज न रहने से पुलिस के सघन काम्बिंग अभियान का निशाना बना हूँ. आख़िर सब हमारी सुविधा के लिए ही तो वो रात में अचानक मेरी गाड़ी के सामने आ जाते हैं और मेरा दिल उनकी लडखडाती आवाज और चाल को देख के धक्-धक् करने लगता है. अब वो डराना थोड़े ही न चाहते हैं. अब मेरे को यूँ ही डर लगे तो इसमें उनका क्या दोष. जब कभी मेरे पास मेरे गाड़ी से सम्बंधित सारे कागज़ रहते हैं, तो और भी ज्यादा समस्या हो जाती है - एक बार मैंने अपना इंश्योरेंस का कागज़ दिखाया - तो उन्होंने कागज़ को अंधेरे में गौर से देखते हुए पूछा - गाड़ी तुम्हारे नाम है - मैंने कहा - 'जी' - तो उन्होंने कागज़ को मेरी तरफ़ लौटते हुए कहा - ठीक है, इंश्योरेंस का कागज़ दिखाओ. मैंने दरोगा जी से बिना बहस किए हुए कहा - सर, वो शायद आप रजिस्ट्रेशन का कागज़ मांग रहे हैं.. और मैंने एक कागज़ उनकी तरफ़ बढ़ा दिया - उन्होंने बिना कागज़ देखे कहा.. ठीक है - जाओ.
एक बार मैं अपनी रामप्यारी को सरपट दौड़ा रहा था, कि तभी मेरे को हाथ दिखा के रोक दिया गया. ये बंगलोर था और अपनी स्पीड नापने वाली मशीन से लैस नागरिकों की सुविधा के लिए तत्पर पुलिस फोर्स का एक दल था. जो दोपहर के वक्त अपने मिशन पे लगा हुआ था. मुझे गाड़ी किनारे खड़ी करने का निर्देश मिला और एक सिपाही ने तत्परता से मेरे गाड़ी की चाभी निकाल के अपने पास रख ली और मुझे उस मशीन की तरफ़ भेजा गया, जहाँ एक पुलिसवाला उस दूरबीन जैसे मशीन में कुछ तांक-झाँक कर रहा था. उसने कहा - 'देखो'. मैंने अपनी गर्दन अन्दर घुसाई तो दिखा की मेरी रामप्यारी जो कि 48 कि.मी. प्रति घंटे की रफ़्तार से मेरे को बैठा के रोड पे दौड़ रही थी - ये उसकी और मेरी तस्वीर थी. मेरे को बताया गया, की मैंने ४५ कि.मी. प्रति घंटे के ट्रैफिक नियम का उल्लंघन किया है. मैंने कहा सर - थोड़ा सा ही तो ज्यादा है.. प्लीज़ - पर बात न बनी तो मैंने ३०० रुपये सरकारी खाते में जमा करा के आगे बढ़ा. मैंने मन ही मन सोचा की वाह भाई.. क्या तत्परता है... बहुत जल्दी ही बंगलोर से सारी ट्रैफिक समस्या ख़त्म हो जायेगी. लोग बिना बात का ही पुलिस को दोष देते हैं.
अगर आपको हमारी पुलिस और उसकी दिलेरी पे संदेह हो तो आप - ये तस्वीर जरूर देखें. एक अकेला पुलिसवाला अकेले एक डंडा और एक ईंट का पत्थर लिए पूरी भीड़ का अकेले ही सामना कर रहा है - कोई शक ?
कोई शक नहीं भाई!!
ReplyDeleteaapka anubhaw to thik hai par avi kam hai , avi jiwan me pulice mahan ki anek mahantao se pala pdega...........
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