मैं और मेरी पंचायत. चाहे ऑफिस हो, या हो घर हम पंचायत होते हर जगह देख सकते हैं. आइये आप भी इस पंचायत में शामिल होइए. जिदगी की यही छोटी-मोटी पंचायतें ही याद रह जाती हैं - वरना इस जिंदगी में और क्या रखा है. "ये फुर्सत एक रुकी हुई ठहरी हुई चीज़ नहीं है, एक हरकत है एक जुम्बिश है - गुलजार"


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Sunday, September 28, 2008

मुंहपिल्लई

Jodhpur, IndiaImage via Google Image Search

'शाबास!', मास्टर साब ने कहा, 'कम से कम तुम्हारी कोई अपनी राय तो है।' अपनी बड़ाई सुन के मेरा सीना गर्व से फूल गया. मास्टर साब ने क्लास में कुछ सवाल पुछा था और जब बहुत से बच्चों ने चुप रहना ही बेहतर समझा - मैं तपाक से बोल पड़ा था - यस सर........ ब्लाह ब्लाह .... और मास्टर साब ने बिना पूरा जबाब सुने ही, मुझे मेरी दिलेरी के लिए शाबासी दे दी. मुझे इस बात का कुछ तब ख़ास मतलब समझ में तो नहीं आया था - 'कम से कम तुम्हारी कोई अपनी राय तो है.' पर ये तो स्पस्ट था - अगर कुछ सवाल पुछा जाय तो जितना झट से हो सके आगे बढ़ - चढ़ के बोलना चाहिए. भले ही ये कहानी तब की है, जब मैं छोटे दर्जे में था , पर बात पते की थी और अन्दर तक घर कर गई थी.

क्लास ६ और ७ में हम लोगों की क्लास करीब एक महीने B.Ed. की मैडम लोग लिया करती थीं. ये उनका प्रैक्टिकल का टाइम होता था. क्लास के वक्त पीछे की बेंच पे उनकी सीनियर मैडम लोग आके बैठा करती थीं. वहीँ क्लास के वक्त ही वो हमारी मैडम लोगों का मूल्यांकन किया करती थीं . हम सारे क्लास के बच्चों को जो हमेशा फटा-फट जबाब दिया करते थे...उनको खूब पसंद किया जाता था. मैडम लोग पहले से समझा दिया करती थीं कि 'देखो!, आज तुम लोग शांत रहना और खूब सही से जबाब देना' - उस दिन मैडम कोई ऐसा चैप्टर पढाती थीं, जो वो पहले पढ़ा चुकी होती थीं. और उनके सवाल पूछने के साथ ही कई हाथ ऊपर खड़े हो जाते थे. सब एक से बढ़कर एक. मैडम भी किसी को निराश नहीं करती थीं. सबको भरपूर मौका दिया जाता था. सवाल वही, पर सबकी अपनी - अपनी राय होती थी और उसकी बड़ी क़द्र की जाती थी. 'वैरी गुड'!




  • ये हमारा सिस्टम है, जिसने मेरे को मुंहपिल्लई करने वाला प्यारा इंसान बना दिया


  • ये स्वयंभू पंचायत हर सप्ताह एक बार जरूर होती है। और हम दोस्त जी भर के मुंहपिल्लई करते हैं।


समय बीतता गया और ये आदत सी बन गई कि चाहे जो भी टोपिक हो, हमें अपनी राय तो रखनी ही होगी. अब वो चाहे वो घर का मसला हो, राजनीति का, सिनेमा का, या फिर ऑफिस से जुड़ी हुई कोई बात हो. अब बस यही गले कि हड्डी बन गई. अब ऐसी आदत सी हो गई है, कि न बोलो तो लगता है, कि गुरु जी का आशीर्वाद नहीं मिलेगा या मैडम जी गुस्सा हो जायेंगी. अब इसका खामियाजा मेरे अगल - बगल वाले भोग रहे हैं. अगर आप ये पढ़ रहे हैं, तो कृपया मेरी बात को समझने कि कोशिश कीजिये. ये हमारा सिस्टम है, जिसने मेरे को मुंहपिल्लई करने वाला प्यारा इंसान बना दिया.

मैं इन निम्न पंक्तियों का उल्लेख करना जरूरी समझता हूँ. क्योंकि इससे बल मिलता है, कि मैं अकेला ही नहीं हूँ. ये हैं राघवेन्द्र जी के लिखे एक पोस्ट से ली गई कुछ पंक्तियाँ

दरअसल ये स्वयंभू पंचायत हर सप्ताह एक बार जरूर होती है। और हम दोस्त जी भर के मुंहपिल्लई करते हैं। इस दौरान हर चीज पर चर्चा होती है - गाँव की पंचायत से लेकर बुश की नीतियों तक पर - गन्ने के खेत में होने वाले प्रेम प्रसंग से लकर हॉलीवुड की हीरोईनों पर.....हर तरह के क़िस्से...।






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3 comments:

  1. शानदार मुंहपिल्लई......अच्छी पोस्ट।

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  2. सतीश जी मजा आ गया. हम लोग बुढापे में क्या करते हैं देखना चाहो तो देख लेना:
    http://mallar.wordpress.com/page/2/

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  3. अच्छा लगा.... "ये हमारा सिस्टम है, जिसने मेरे को मुंहपिल्लई करने वाला प्यारा इंसान बना दिया."

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विचारों को पढने और वक्त निकाल के यहाँ कमेन्ट छोड़ने के लिए आपका शुक्रिया

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