मैं और मेरी पंचायत. चाहे ऑफिस हो, या हो घर हम पंचायत होते हर जगह देख सकते हैं. आइये आप भी इस पंचायत में शामिल होइए. जिदगी की यही छोटी-मोटी पंचायतें ही याद रह जाती हैं - वरना इस जिंदगी में और क्या रखा है. "ये फुर्सत एक रुकी हुई ठहरी हुई चीज़ नहीं है, एक हरकत है एक जुम्बिश है - गुलजार"


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Sunday, October 11, 2009

सब कुछ हो गया - पर ये एक है कि अभी तक पकडा नहीं गया

The SamuraiImage via Wikipedia
ससुरे तालिबान बड़े जालिम लडाके हैं - बड़ी खतरनाक लड़ाई लड़ते हैं. अब अफगानिस्तान हो या पाकिस्तान का पेशावर - गजब जोखिम भरी लड़ाई लड़ रहे हैं. अब इनका खौफ कितना है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है - गत दिनों,  न्यूज़ आती है, कि काश्मीर में कुछ तालिबान लडाके घुस आये हैं - भारत सरकार की मिलिट्री के आकाओं को इसका खंडन करना पड़ता है,  कि नहीं ऐसा नहीं है. आतंकियों का मनोबल बढाने के लिए ये काफी था.

जब मैं इन तालिबान लडाकों को देखता हूँ, तो उनका ये गजब का जूनून मेरे को कुछ पुराने सिनेमा की याद दिलाता है. इनमें से आज के जमाने के कुछ सिनेमा हैं - The Last Samurai, Gladiator, troy  वगैरह वगैरह.. ये सारी सिनेमा में एक लडाका होता है, जो गजब का बहादुर होता है - बहुत लोगों को अकेले मौत के घाट उतार देता है. मैं सोच रहा था, कि शायद इन्हीं सब सिनेमा को देख के वो लोग इतने दिलेर बने हैं. वरना ज़रा सोचिये... पाकिस्तान के सेना के एक ब्रिगेडिअर और एक लेफ्टिनेंट कर्नल सहित कई सैनिको को उन्हीं की मांद में घुस के मार डालना और कुछ को बंधक बना लेना - जंगली आदिवासी टाइप के लडाकों की बस की बात नहीं थी.

अब पता नहीं किसकी गलती है, हो सकता है कि इसी तरह के कुछ सिनेमा शुरुवाती दौर में अमेरिकियों ने हालीवुड से ले आके तालिबानी ट्रेनिंग के वक़्त उनको दिखाया होगा (डिस्क्लैमेर - लोग कहते हैं कि तालिबान लोगों को बनाने में अंकल सैम का सहयोग हुआ करता था. मैं बहुत छोटा था उस वक़्त, कुछ बुजुर्ग जो इसे पढ़ रहे हैं, कृपया प्रकाश डालें. )

तो मैं ये सोच रहा हूँ, कि आखिर ससुर के नाती ये तालिबान कौन सी चक्की का आटा खाते हैं. या ऐसे पूछता हूँ, कि उधर पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा वाली घाटी में कौन सी फसल उगती है, कि लड़ने की इतनी ताक़त देती हैं. क्या मोटिवेशन है बाबा. वाह! वैज्ञानिकों को वहाँ की मिटटी की शोध करनी चाहिए.

अगर कारपोरेट जगत चाहे तो अपने executives को मैनेजमेंट ट्रेनिंग के लिए स्वाट घाटी भेज दे. जोखिम है - पर फायदा भी बहुत है. आखिर अर्सों से बस लड़े जा रहे हैं. पता नहीं क्या चाहते हैं. पर बस लगे हैं तो लगे हैं.. अगर लड़ाई बंद हो जाए तो ये लोग बैठे - बैठे यूं ही मर जायेंगे.. तो आखिर कुछ तो है. कुछ टी.वी. के प्रचार वाले भी इनसे अपने अगले प्रचार का आईडिया ले सकते हैं. जैसे - वगैरह - वगैरह खाइए - लगाइए - इस्तेमाल करिए और तालिबान जैसी प्रबल इच्छा-शक्ति और लगन और ताकत पाइए.

वैसे कुछ लोग हैं, जो इस महान लड़ाई के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं. मेरे भाई ने पुछा .. ये तालिबान लोग कौन है? अल-कायदा और तालिबान अलग - अलग हैं क्या? उसको ये जान के हैरानी हुई कि कई देश की सेना (NATO) मिल के वहाँ लड़ाई लड़ रही है, पर फिर भी वहाँ मामला हल नहीं हो रहा है. वैसे मेरी माता जी, जो कि आस्था चैनल के बाबा लोगों के अलावा अगर कोई दूसरा चेहरा पहचानती होंगी तो वो है.. ओसामा बिन लादेन का. ससुरा इतनी बार टी.वी वाले उसका चेहरा दिखाते हैं कि कहो मत. कहने लगीं .."सब कुछ हो गया - पर ये एक है कि अभी तक पकडा नहीं गया"

(अगर किसी देश की खुफिया एजेन्सी - इस को पढ़ रही है, तो कृपया गलत मतलब न निकालें - हमारा उन लोगों से कोई लेना देना नहीं है.. हम तो बस यूं ही टाइम पास कर रहे हैं...)

1 comment:

  1. गुरु, आप तो दिल पे ले लिए

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विचारों को पढने और वक्त निकाल के यहाँ कमेन्ट छोड़ने के लिए आपका शुक्रिया

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