
ठहरें, जरा आतंकियों के बारे में भी सोचें. सब लोग सिर्फ़ उनकी बुराई के बारे में ही सोच रहे हैं. आख़िर हमारे देशवासी और हमारे देश के नेताओं ने उनको इस हद तक हताश कर दिया कि..... नहीं समझ में आई बात... ठीक है.. मैं थोड़ा और लिखता हूँ..
उन्होंने हिंदू - मुस्लिम दंगे कराने की सोची - इसके लिए कभी हिंदू बहुल आबादी में विस्फोट किए तो कभी बाजार में... सैकड़ों लोग मारे जाते रहे. सरकार कमीशन बैठाती रही- वो इन्तेजार करते रहे .. कि कब उनको पकड़ा जाए और कब वो शहीद कहलायें और उनको कामयाबी मिले. पर कहाँ कोई उनके बारे में सोच रहा था..
मुंबई में लोकल ट्रेन में विस्फोट किया, अगले दिन से ट्रेन फिर चालू. गजब है भाई.. बड़ी जनसंख्या के ये सब बड़े फायदे हैं.... थोड़ी बहुत आवाज हुई - कि ये मुस्लिम अतिवादी हैं - पर सिर्फ़ इतना कहने से क्या होगा.. दंगे होने चाहिए थे - कोई और देश होता. अरे, और क्यों, आप अपने पड़ोसी मुल्क को ही ले लें, इसका आधा प्रयास भी वहाँ करें, तो वहाँ ऐसे जातीय दंगे हो जाएँ कि सरकार को मिलिटरी बुलानी पड़े.. पर भईया अपना देश तो निराला है. मेरे को तो समझ में नहीं आता है... थोड़ा दंगे हो गए होते, तो उनको भी शांती मिल गई होती और आगे होने वाले इन विस्फोटों से भी हम बच जाते. पर कौन है, जो इतना सुने..
जब बात इससे भी न बनी, तो मुस्लिम धर्म - स्थलों पे भी धमाके हुए, दिल्ली हो या जयपुर. पर पता नहीं क्या हुआ है आज की नस्ल को. एक वो हमारा बचपन था, कि एक लडकी छेड़ दो, या क्रिकेट मैच में हार जीत हो जाए - और ऐसे और भी कई छोटे मोटे मसले को ले के अच्छे स्तर पे दंगे हो जाया करते थे. पर अब कहाँ लोगों में वो पहले सा जोश रहा. सबको साला, अपने रोटी की चिंता है - धर्म की तो चिंता रही न किसी को अब. बड़ा घोर कलयुग है भाई. अब ये भी नहीं कह सकते कि दंगे न होने सिर्फ़ बड़े शहरों की समस्या थी - याद नहीं आपको, बनारस में मन्दिर में विस्फोट हुए - कुछ नहीं हुआ...फिर हजारों लोग काश्मीर में मारे गए - देश ने इसे देश का आतंरिक मामला माना तो वहीँ देशवासियों ने उसे काश्मीर का आंतरिक मसला मान लिया. मूए आतंकी सोच रहे थे, कि देश हिल जायेगा. बेवकूफ. ये बेचारे आतंकवादी - न जाने किन चिरकुटों के चंगुल में फँस गए हैं - पता नहीं काहे अपनी जान दिए जा रहे हैं. फिर आसाम, नक्सल और न जाने कितनी ही जगह उन्होंने अलग हट के प्रयास किया.. पर किस्मत ही ख़राब है...
ये आतंकी भाई लोग अगर दंगे और नफरत के जरिये भारतीय सामाजिक सिस्टम को एकदम ब्रेक कर देना चाहते हैं, तो उनकी लाटरी एक ही जगह लग सकती है, और वो है, राज-नेताओं और सामाजिक ठेकेदारों की शरण में जा के. जी हाँ, उनके पास अनुभव भी है और उनकी जरूरत भी. हाँ एक बार उन्होंने पार्लियामेंट के बाहर पहुँच के उनसे संपर्क साधने की कोशिश की थी, पर नेता लोग बुरा मान गए. वो समझे की देश पे हमला है. लगे सेना को युद्ध के लिए तैयार करने. अगर थोड़ी समझ रही होती, तो वही बात सलट गई होती. अब सारे देश के नेताओं से एक साथ मीटिंग करने की इससे अच्छी जगह कौन सी हो सकती थी.. पर हाँ, वो आतंकी लोग, गोला बारूद ले के आए थे, तो नेता लोग बुरा मान गए और बात बिगड़ गई.
अब जब कहीं बात नहीं बनती दिख रही थी तो मजबूर हो के उन्होंने वही किया जो कारपोरेट वर्ल्ड में होता है, एस्क्लेट कर दिया नेक्स्ट लेवल पर. जी हाँ, उन्होंने कहा, जब ससुरी कश्मीर पूरी जला दी, पर भारत सरकार को चिंता ही नहीं. तो चलो, अब अपनी बात और ऊपर ले जाएँ, कि बाहर से भारत पे दबाव आए कि वो आतंकियों पे सख्ती बरते - और भाई, ये आतंकी लोग और कुछ नहीं चाहते हैं - यही तो उनकी छोटी सी इच्छा है - अगर उनको हजारों लोगों को मारने की इच्छा होती तो वो चले गए होते किसी झुग्गी - झोपडी में, एक ग्रेनेड मारते १ हजार मरते. लेकिन नहीं, वो थक चुके हैं, गरीब, लोअर मिडल क्लास और मिडल क्लास को मार मार के.. बड़ी मोटी चमड़ी होती है - कुछ असर ही नहीं होता है. कुछ भी कर लो, अगले दिन फिर लगेंगे, क्रिकेट देखने तो शाहरुख का सिनेमा देखने तो कुछ रियलिटी शो देखने और कुछ तथाकथित चिन्तक लोग जो ये सब नहीं कर सकते वो ब्लॉग्गिंग करने लगते हैं... पर समस्या का क्या.. जो तो रही जस की तस्...
उन्होंने हिंदू - मुस्लिम दंगे कराने की सोची - इसके लिए कभी हिंदू बहुल आबादी में विस्फोट किए तो कभी बाजार में... सैकड़ों लोग मारे जाते रहे. सरकार कमीशन बैठाती रही- वो इन्तेजार करते रहे .. कि कब उनको पकड़ा जाए और कब वो शहीद कहलायें और उनको कामयाबी मिले. पर कहाँ कोई उनके बारे में सोच रहा था..
मुंबई में लोकल ट्रेन में विस्फोट किया, अगले दिन से ट्रेन फिर चालू. गजब है भाई.. बड़ी जनसंख्या के ये सब बड़े फायदे हैं.... थोड़ी बहुत आवाज हुई - कि ये मुस्लिम अतिवादी हैं - पर सिर्फ़ इतना कहने से क्या होगा.. दंगे होने चाहिए थे - कोई और देश होता. अरे, और क्यों, आप अपने पड़ोसी मुल्क को ही ले लें, इसका आधा प्रयास भी वहाँ करें, तो वहाँ ऐसे जातीय दंगे हो जाएँ कि सरकार को मिलिटरी बुलानी पड़े.. पर भईया अपना देश तो निराला है. मेरे को तो समझ में नहीं आता है... थोड़ा दंगे हो गए होते, तो उनको भी शांती मिल गई होती और आगे होने वाले इन विस्फोटों से भी हम बच जाते. पर कौन है, जो इतना सुने..
जब बात इससे भी न बनी, तो मुस्लिम धर्म - स्थलों पे भी धमाके हुए, दिल्ली हो या जयपुर. पर पता नहीं क्या हुआ है आज की नस्ल को. एक वो हमारा बचपन था, कि एक लडकी छेड़ दो, या क्रिकेट मैच में हार जीत हो जाए - और ऐसे और भी कई छोटे मोटे मसले को ले के अच्छे स्तर पे दंगे हो जाया करते थे. पर अब कहाँ लोगों में वो पहले सा जोश रहा. सबको साला, अपने रोटी की चिंता है - धर्म की तो चिंता रही न किसी को अब. बड़ा घोर कलयुग है भाई. अब ये भी नहीं कह सकते कि दंगे न होने सिर्फ़ बड़े शहरों की समस्या थी - याद नहीं आपको, बनारस में मन्दिर में विस्फोट हुए - कुछ नहीं हुआ...फिर हजारों लोग काश्मीर में मारे गए - देश ने इसे देश का आतंरिक मामला माना तो वहीँ देशवासियों ने उसे काश्मीर का आंतरिक मसला मान लिया. मूए आतंकी सोच रहे थे, कि देश हिल जायेगा. बेवकूफ. ये बेचारे आतंकवादी - न जाने किन चिरकुटों के चंगुल में फँस गए हैं - पता नहीं काहे अपनी जान दिए जा रहे हैं. फिर आसाम, नक्सल और न जाने कितनी ही जगह उन्होंने अलग हट के प्रयास किया.. पर किस्मत ही ख़राब है...
ये आतंकी भाई लोग अगर दंगे और नफरत के जरिये भारतीय सामाजिक सिस्टम को एकदम ब्रेक कर देना चाहते हैं, तो उनकी लाटरी एक ही जगह लग सकती है, और वो है, राज-नेताओं और सामाजिक ठेकेदारों की शरण में जा के. जी हाँ, उनके पास अनुभव भी है और उनकी जरूरत भी. हाँ एक बार उन्होंने पार्लियामेंट के बाहर पहुँच के उनसे संपर्क साधने की कोशिश की थी, पर नेता लोग बुरा मान गए. वो समझे की देश पे हमला है. लगे सेना को युद्ध के लिए तैयार करने. अगर थोड़ी समझ रही होती, तो वही बात सलट गई होती. अब सारे देश के नेताओं से एक साथ मीटिंग करने की इससे अच्छी जगह कौन सी हो सकती थी.. पर हाँ, वो आतंकी लोग, गोला बारूद ले के आए थे, तो नेता लोग बुरा मान गए और बात बिगड़ गई.
अब जब कहीं बात नहीं बनती दिख रही थी तो मजबूर हो के उन्होंने वही किया जो कारपोरेट वर्ल्ड में होता है, एस्क्लेट कर दिया नेक्स्ट लेवल पर. जी हाँ, उन्होंने कहा, जब ससुरी कश्मीर पूरी जला दी, पर भारत सरकार को चिंता ही नहीं. तो चलो, अब अपनी बात और ऊपर ले जाएँ, कि बाहर से भारत पे दबाव आए कि वो आतंकियों पे सख्ती बरते - और भाई, ये आतंकी लोग और कुछ नहीं चाहते हैं - यही तो उनकी छोटी सी इच्छा है - अगर उनको हजारों लोगों को मारने की इच्छा होती तो वो चले गए होते किसी झुग्गी - झोपडी में, एक ग्रेनेड मारते १ हजार मरते. लेकिन नहीं, वो थक चुके हैं, गरीब, लोअर मिडल क्लास और मिडल क्लास को मार मार के.. बड़ी मोटी चमड़ी होती है - कुछ असर ही नहीं होता है. कुछ भी कर लो, अगले दिन फिर लगेंगे, क्रिकेट देखने तो शाहरुख का सिनेमा देखने तो कुछ रियलिटी शो देखने और कुछ तथाकथित चिन्तक लोग जो ये सब नहीं कर सकते वो ब्लॉग्गिंग करने लगते हैं... पर समस्या का क्या.. जो तो रही जस की तस्...
पढ़े-लिखे लोगों की अपनी सिरदर्दी है, कोई इस ऑफिस में काम कर रहा है, तो कई उस ऑफिस में। अपने बड़े अधिकारियों की फटकार से ही ये लोग भी सबकुछ भूल जाएंगे, और जो बचा-खुचा याद रहेगा वो इनकी बीवियों या तो चुम्मे लेकर या फिर लड़ कर भूला देंगी। हर राष्ट्रीय आपदा के बाद यही भारतीय चरित्र है। - अलोक नंदन की लिखी एक पोस्ट से