हमारे एक बंगलोर के ऑफिस के सहकर्मी इलाहाबाद से गया जाने के वक़्त - प्रोग्राम में कुछ बदलाव की वजह से सुबह से शाम तक के लिए अचानक बनारस पहुंचे. वो खुद थे, उनकी धर्मपत्नी और माता जी भी उनके साथ थीं. करीब सुबह के वक़्त जब वो बस से बनारस के रास्ते में थे तो उन्होंने अपने प्रोग्राम से मुझे फ़ोन के जरिये अवगत कराया. शाम को उसी दिन उनको मुगलसराय से गया के लिए ट्रेन पकडनी थी. वो लोग वहां पिंड-दान करने जा रहे थे. वैसे बनारस का उनका प्रोग्राम कोई पक्का नहीं था. तो जब उन्होंने इलाहाबाद से मेरे को अपना ये बदला हुआ प्रोग्राम बताया तो मैंने कहा कि तुम लोग वहां दिन में बनारस में मेरे घर चले जाओ. मम्मी हैं हीं बनारस में.
ध्यान देने की बात ये थी कि वहां घर पे सिर्फ मम्मी और बुआ जी (जो कुछ दिनों के लिए आई हैं) थी, और मैंने उनसे उनका कोम्फोर्ट भी नहीं पुछा था. कि इस तरह एक दिन के लिए अगर अचानक कोई आ जाए तो उससे कोई असुविधा तो नहीं होगी. बस माँ बाप पे बच्चों का यही विश्वास .. ना जाने ये क्या चीज़ होती है. मेरा मम्मी को फ़ोन पे बताना था.. कि बस मम्मी तुरंत हरकत में आ गईं. मेरे को कितना अच्छा लगा कि आप पूछिए मत. कल को मेरी शादी हो जायेगी और इसतरह से किसी दोस्त को घर पे अचानक बुलाना होगा, तो क्या वही सहयोग प्राप्त हो सकेगा?
मैंने मम्मी से पूछ के उनको नंबर दे दिया. वैसे मैं तो लोगों को घर पे बुलाने से चूकता नहीं. यही कारण है, कि यहीं घर से इतना दूर भी यहाँ मेरी महफ़िल जमी ही रहती हैं. तो सब कुछ सेट हो गया... फिर वो बताये अनुसार वहाँ बनारस में शिवपुर स्थित हमारे घर पे पहुँच गए. मम्मी और बुआ ने उन लोगों को उनकी इच्छानुसार विश्वनाथ बाबा और गंगा जी का दर्शन भी करवा दिया. बुआ और मम्मी की मेहमान-नवाजी देख के वो दोस्त एकदम गदगद होगया . वैसे भी उनका भाग्य था.. वरना हम सब तो बस ऊपर वाले के हाथ की कठपुतली हैं. शाम को मम्मी और बुआ ने ससम्मान उनको मुगलसराय के लिए साधन पे बैठा के विदा किया. उसके बाद एस.एम्.एस के जरिये मुझे संछेप में बता दिया . दोस्त ने फ़ोन पे मुझे आभार व्यक्त किया. बुआ जी और मम्मी के लिए वो बस .. कुछ कह नहीं पा रहा था.. जब इंसान को सच्चा स्नेह - बिना आडम्बर का व्यावहार मिलता है - तो यही होता है...आजकल शायद लोग एक दूसरे का इस तरह सम्मान नहीं करते हैं. वहीँ एक अजनबी शहर में जब इस तरह का सम्मान मिले तो लोगों को आश्चर्य हो - तो ये बड़ी बात नहीं है. वाह!! रे प्रभु...
मेरे को ये नहीं समझ में आता है, कि आज कल इस तरह के निश्छल व्यावहार की कितनी कमी सी है. वरना.. सही मायने में जब भी कोई आता है, तो हमारे घर में कभी पकवान नहीं बनाया गया होगा - जो भी घर में उपलब्ध है, प्यार से वही मिल बाँट के खाया गया होगा. आज एक बार फिर मेरा विश्वास इस बात पे और प्रबल हो गया है कि पैसे से नहीं अपितु सच्चे प्यार से उनको जो खुशी मिलती है, उसका कोई बराबरी नहीं है. लोग अब दूर रहते हैं, उनके पास वक़्त नहीं है, कि वो शनिवार और रविवार को लोगों से मिले. सबके लगता है, कि शायद दूसरे पसन्द ना करें. हम बहुत दूर चले जा रहे हैं. ना जाने किस ओर, किस चीज़ की तलाश में.
जब हम लोग छोटे थे, तब भी हमारे पिताजी लोग , अंकल लोग, सुबह से शाम की ड्यूटी बजाते थे, पर फिर भी, सन्डे को पास - पड़ोसी - सगे संबंधी - रिश्तेदार - नातेदार के लिए वक़्त निकाल ही लिया करते थे. मेरे को याद नहीं कि मेरे घर में कभी किसी के भी आने पे - चाहे वो बता के आये हों या बिना बताये - कि कभी किसी ने जरा भी नाक - भों सिकोडी हो... शायद घर से सीखी हुई यही सब आदत आज घर से इतना दूर रहते हुए भी जीवन जीने का सहारा बनी हुई है. अपने घर के सभी बड़ों को सत सत नमन.
