जब उस दिन रास्ते में संपत से भेंट हुई, तो वो जल्दी में कन्नी काटता हुआ दिखाई दिया। मैंने भी कहाँ छोड़ना था उसे। अरे हम कोई फेसबुक थोड़े ही न हैं कि देखो न देखो तुम्हारी मरजी। बस सस्ती काफी की दूकान के आगे बैठ के शुरू कर दी पंचायत। थोडा खंगाला तो पता चला कि बन्धु इसलिए मुहं लटकाए हैं, कि उनको लगता है,कि कोई उनकी बात नहीं समझता और वो जो भी कुछ करते हैं, उससे किसी न किसी को दुःख जरूर पहुंचता है।
संपत कोई अकेला नहीं है. बहुत से आपको मिल जायेंगे। ये बड़ी ही विडम्बना है, कि हमें खुद ही नहीं पता कि आखिर हमें क्या चाहिए। ये ही सबसे बड़ी समस्या की जड़ है। ये मैं नहीं कह रहा, बल्कि कुछ दार्शनिकों ने कहा है, कि बस बढ़ते चलो रास्ता मिल जायेगा. स्थिरता किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकती है. जब भी कभी लगे कि आप दोराहे पे खड़े हैं, तो बस एक रास्ता चुनो और तेजी से उस रास्ते पे चल पड़ो। और इस भागम दौड़ में मिली १० असफलता, वहीँ पुरानी जगह खड़े रह के बेहतर विकल्प की आशा से लाख गुना बेहतर है।
इस हडबडी में अगर कुछ सही या गलत हुआ और अगर कोई दूसरा इससे आहात होता है, तो होने दो. जो आहत होता है, कसूर उसी का है. किसी विद्वान् ने सही कहा है - 'कोई बिना आपकी मर्जी के आपको परेशान नहीं कर सकता'. लेकिन अगर आपको ये लगता है, कि आप इसके लिए जिम्मेदार है, तो इसका मतलब ये है, कि आपको अपने ऊपर भरोसा नहीं है. जब भरोसे की कमी होती है, तो हजार समस्याएं जन्म लेने लगती है। और फंस जाते हैं आप इस गड़बड़ झाले मे।
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