पंचायतनामा

मैं और मेरी पंचायत. चाहे ऑफिस हो, या हो घर हम पंचायत होते हर जगह देख सकते हैं. आइये आप भी इस पंचायत में शामिल होइए. जिदगी की यही छोटी-मोटी पंचायतें ही याद रह जाती हैं - वरना इस जिंदगी में और क्या रखा है. "ये फुर्सत एक रुकी हुई ठहरी हुई चीज़ नहीं है, एक हरकत है एक जुम्बिश है - गुलजार"


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Sunday, May 10, 2020

कोविड - एक वायरस है

कोविड  कर के एक वायरस है. वो कहाँ से आया है, किसी को नहीं पता है. वो बेचारा क्या खता पीता है. ये, भी किसी को नहीं पता.

पर उसके आने से देश दुनिया में एक समता सी आ गई है. बस सब लोग बहुत शांति से रहने लगे हैं. सभी गरीब और कमजोर लगने लगे. अमेरिका को अब ऐसा कोई नया सिनेमा बनाने की जरूरत नहीं, जिसमे वो पूरे विश्व को बचा रहे हो.

सब लोग मास्क लगते है. कोई बहार नहीं जाता है. ५ साल का बच्चा अब वायरस का मतलब समझने लगा है. हम तो जब कंप्यूटर चलना सीखे तब समझे क्वारंटाइन क्या होता है. उस वक़्त कंप्यूटर के वायरस को एंटी वायरस क्वारंटाइन करता था. कंप्यूटर के मालिक को नहीं. पर अभी ये वाला जो  वायरस है, उसमे वायरस को धारण करने वाले को भी क्वारंटाइन करते हैं.

लोगों को मरना पड़  रहा है. बहुत ही हड़बड़ाहट है. लॉक डाउन  है. स्कूल बंद है. पुलिस और डॉक्टर जो फ्रंट पे रह के हम सबको बचा रहे हैं, उनको भी अपने जान देनी पड़  रही है. ऐसा पहले नहीं हुआ.

आशा करते हैं, आने वाले समय में ईश्वर की कृपा से सब ठीक हो जाएगा. 

सम्पत की उलझन

जब उस दिन रास्ते में संपत से भेंट हुई, तो वो जल्दी में कन्नी काटता हुआ दिखाई दिया। मैंने भी कहाँ छोड़ना था उसे। अरे हम कोई फेसबुक थोड़े ही न हैं कि  देखो न देखो तुम्हारी मरजी। बस सस्ती काफी की दूकान के आगे बैठ के शुरू कर दी पंचायत। थोडा खंगाला तो पता चला कि  बन्धु इसलिए मुहं लटकाए हैं, कि उनको लगता है,कि कोई उनकी बात नहीं समझता और वो जो भी कुछ करते हैं, उससे किसी न किसी को दुःख जरूर पहुंचता है। 

संपत कोई अकेला नहीं है. बहुत से आपको मिल जायेंगे। ये बड़ी ही विडम्बना है, कि हमें खुद ही नहीं पता कि आखिर हमें क्या चाहिए। ये ही सबसे बड़ी समस्या की जड़ है। ये मैं नहीं कह रहा, बल्कि कुछ दार्शनिकों ने कहा है, कि बस बढ़ते चलो रास्ता मिल जायेगा. स्थिरता किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकती है. जब भी कभी लगे कि आप दोराहे पे खड़े हैं, तो बस एक रास्ता चुनो और तेजी से उस रास्ते पे चल पड़ो। और इस भागम दौड़ में मिली १० असफलता, वहीँ पुरानी जगह खड़े रह के बेहतर विकल्प की आशा से लाख गुना बेहतर है।

इस हडबडी में अगर कुछ सही या गलत हुआ और अगर कोई दूसरा इससे आहात होता है, तो होने दो. जो आहत होता है, कसूर उसी का है. किसी विद्वान् ने सही कहा है - 'कोई बिना आपकी मर्जी के आपको परेशान नहीं कर सकता'. लेकिन अगर आपको ये लगता है, कि  आप इसके लिए जिम्मेदार है, तो इसका मतलब ये है, कि आपको अपने ऊपर भरोसा नहीं है. जब भरोसे की कमी होती है, तो हजार समस्याएं जन्म लेने लगती है। और फंस जाते हैं आप इस गड़बड़ झाले मे। 





Sunday, January 20, 2013

'का गुरु! हो गईला न बड़ा - मजा आवत ह'

grown up
Grown up (Photo credit: tvlistings.zap2it.com)
तब हम बड़े न हुए थे, छोटे बच्चे थे, लम्बाई भी कोई ज्यादा नहीं थी कि लोग बाग़ छोटा न समझें. बहुत जल्दी थी, बड़ा होने की. क्योंकि, अक्सर ऐसा होता था - कि उमर में बड़े भइया, चाचा या फिर पड़ोस में देख के लगता था, कि बड़ा हो जाऊं, तो बस फिर कभी डांट नहीं पड़ेगी.. राय देने की लत तो शुरू से ही थी, पर कभी किसी ने भाव नहीं दिया, छोटा होने के ये सब नुकसान समझ में आते थे... कोई भी काम पड़ा, तो सबसे छोटा होने की वजह से सीधे सबके आर्डर का भरपूर पालन करना पड़ता था.. बड़ी खीज होती थी... लगता था, कब बड़े होंगे.. समय मानो कितना धीरे - धीरे बीत रहा था...

और अब बड़े हो गए हैं। बड़े होने का एहसास होते ही वो पुराना बचपन मानो दूर से मुह चिढ़ा के कह रहा हो। 'का गुरु! हो गईला  न बड़ा - मजा आवत ह' - अरे काहे का मजा यार - "जब आप छोटे होते हैं तो बड़े होना चाहते हैं, जब बड़े होते हैं तो छोटे होना चाहते हैं।" मन करता है, कि  फिर से कोई डांटे - काम कैसे सही तरह से किया जाता है बताये। और जब गलती हो, तो साथ में खड़ा हो और फिर उसी बचपन की तरह कहे - "गिरते हैं शाह सवार ही मैदाने जंग में, वो तिफ़्ल क्या गिरे जो घुटने के बल चले " अब तो छोटी सी गलती पे मजा लेने वाले ज्यादा हैं और हितैषी कम। कम उम्र में हमारी हर बात पे ध्यान दिया जाता था। बड़े हो जाने  पे जब तक आप गलती नहीं करते तब तक कोई आपकी और ध्यान नहीं देता। वाह रे दुनिया का बड़प्पन! जैसे नींबू के शरबत में आर्टीफीशियल फ्लेवर होता है जबकि बर्तन धोने के लिक्विड में असली नींबू डालने का दावा करते हैं। अरे मैं कहता हूँ, कहे किसी की गलती पे हंसिये मत, उसे शर्मिंदा मत करिये बल्कि गले लगा लिजीए । किसी को गले लगाना  सर्वोत्तम उपहार है - एक ही साइज़ सभी को फिट आता है और एक्सचेंज करने में भी कोई समस्या नहीं होती। और याद रखिये लोग आपकी मान्यता का विरोध कर सकते हैं पर आपके प्रेम का नहीं। भगवान हमारे हांथों से ही अपने बच्चों को गले लगाता है।

उम्र के साथ साथ प्रेमिका और शादी की बाते भी उठाने लगती हैं। अगर आपकी कोई प्रेमिका नहीं है तो आपके जीवन में कुछ कमी है, लोग ऐसा आपको बताएँगे। और अगर आपकी कोई प्रेमिका है तो आपके जीवन में कुछ नहीं है ऐसा आपको एहसास होगा। पर सौ बात की एक बात है, कि  आप परेशान न हों और अपनी परेशानियों से दूर न भागें, क्योंकि जब वे आपको पकड़ेंगी तब आप उनसे भागते-भागते थक चुके होंगे। अब्राहम लिंकन ने कहा है कि यदि किसी व्यक्ति के चरित्र की दृढ़ता आंकना चाहते हों तो उसे शक्तियां और अधिकार दे दें। - मैं कहता हूँ, कि यदि आपको किसी का कुछ भी आंकना है तो उसको एक प्रेमिका दे दें जो कि बाद में उसकी बीवी बने। शादी वह क्षण है जहाँ आप यह नहीं कह सकते - "चलो सब कुछ भूल जाते हैं".


योग्यता आपको शिखर तक ले जा सकती है पर आपका चरित्र आपको वहां बनाये रखता है। किसी भी संवाद में सबसे ज़रूरी है वह सुनना जो कहा नहीं जा रहा हो। अपने कार्यस्थल पर हमें उनके प्रति आदर और समर्पण दिखाना चाहिए जो उपस्थित नहीं हैं, इस प्रकार हम उनका विश्वास प्राप्त कर लेते हैं जो उपस्थित हैं। इसका मतलब ये नहीं कि आप झूठी प्रशंशा कीजिये।  

इन दिनों हम ऐसी चीज़ों को खरीदना चाहते हैं जिनकी हमें ज़रूरत नहीं हैं, ऐसे धन से खरीदना चाहते हैं जो हमारे पास नहीं है, और उन लोगों को दिखाने के लिए खरीदना चाहते हैं जिन्हें हम पसंद नहीं करते। वाह रे मुर्खता! मूर्ख लोग जब एक समूह बनाकर खड़े हों तो उनकी ताक़त को कम न आंकें। और हाँ किसी को भी अपने जैसा बनाने की कोशिश न करें। भगवान जानता है कि आप जैसा एक ही काफी है। फिर भी कहूँगा कि
चीज़ों के उजले पक्ष की तरफ़ देखने से आज तक किसी की भी आँखें ख़राब नहीं हुईं और जैसा कि  एलिअनोर रूजवेल्ट ने कहा है कि आपकी अनुमति के बिना कोई भी आपको छोटा नहीं बना सकता तो बस बड़े होने पे इतना भी गम मत करिए। जरा उस शराबी के बारे में विचार करिए जो कि वही सब बकता है जो शराब न पीनेवाले सोचते हैं।

मस्त रहिये। एक दिन आएगा जब आपकी ज़िंदगी आपकी आंखों के सामने एक फ़िल्म की तरह दिखेगी, इसलिए एक बेहतर ज़िंदगी जियें। इटालियन कहावत है कि - शतरंज का खेल ख़त्म हो जाने पर राजा और पैदल सिपाही एक ही डब्बे में चले जाते हैं। अतः हमें सदैव उदार और दयालु होना चाहिए - चार चींटियाँ जंगल से गुजर रही थीं। उन्होंने एक हाथी को आते देखा। पहली चींटी बोली - "इसे ख़त्म कर देते हैं"। दूसरी चींटी बोली - "इसकी टांग तोड़ देते हैं"। तीसरी चींटी बोली - "इसे उठाकर फेंक देते हैं"। चौथी चींटी बोली - "इसे जाने दो यार, ये अकेला है और हम चार"।

Friday, January 18, 2013

इन्टरनेट - एक साधन है पर साध्य नहीं।

A book scanner at the Internet Archive headqua...
A book scanner at the Internet Archive headquarters in San Francisco, California. (Photo credit: Wikipedia)
कुछ लोग कहते हैं कि  आजकल का नया जमाना है। लोग किताब नहीं पढ़ते बल्कि वो जानकारियों के लिए इन्टरनेट पे ज्यादा आश्रित हैं। अब इन दोनों जरिये से जानकारी ली जा सकती है। हाँ, ये अब रीडर के खुद के ऊपर निर्भर करता है, कि  वो किस जरिये से किस तरह की जानकारी लेता है। 

इन्टरनेट पे तमाम जानकारियां ऐसी हैं, जिसको लोगो ने अपने अनुभव के आधार पे लिख डाला  है। अब अनुभव सही और गलत भी हो सकते हैं। अब जैसे मैं जब इस ब्लॉग को लिख रहा हूँ, तो ये एक प्रकार से इन्टरनेट पे मेरे अनुभव से जुड़ा हुआ ही है। वहीँ पर किताब एक ऐसी चीज़ है, जिसे पूरी तरह से रिसर्च के बाद लिखा जाता है। कई लोग उसका रिव्यु करते हैं और तब कहीं जा के कोई किताब मार्किट में आती है। 

किताब को पब्लिश करने से लेकर स्टोर तक पहुँचाने की प्रक्रिया बहुत ही जटिल और अत्यधिक समय लेने वाली है। वहीँ एक नुक्सान और होता है - कि  ऐसे वो तमाम विषय जो बहुत ही जल्द बदल जाते हैं, उनके ऊपर किताब लिख कर बुक स्टोर में पहुँचाना बहुत घाटे का सौदा साबित हो सकता है। जैसे एक उदहारण है, टूरिस्ट गाईड का। एक जनाब ने एक टूरिस्ट किताब बुक स्टोर से खरीदी और उसमे बताये अनुसार पहुँच गए एक तालाब के किनारे जो नार्थ ईस्ट चीन में नार्थ कोरिया के सीमा के समीप था। अब किताब में लिखा था की वहां कोई समस्या नहीं है। पर वो क्षेत्र निषिद्ध क्षेत्र निकला और जनाब को सैनिकों ने पकड़ के 1 महीने की कैद में डाल  दिया। बाद में गाइड ने उनसे क्षमा माँगी। 

वहीँ इन्टरनेट की ख़ास बात ये है, कि  उसके जरिये हम जानकारी को बहुत ही जल्दी उसके रीडर तक पहुंचा सकते है। ऐसे तमाम सब्जेक्ट (उदाहरण - ट्रेवल गाइड etc.) के लिए इन्टरनेट एक अच्छा साधन साबित हो सकता है। आपने अभी पढ़ा भी होगा कि  अब कुछ किताबे भी हैं जो कि सीधे सीधे डिजिटल फॉर्म में ही रिलीज़ हो रही हैं। इसका प्रमुख कारण है - सुगमता। ये बहुत ही अच्छी बात है। उन सारी परखी हुई जानकारियों को अगर कोई हमें  डिजिटल माध्यम से पहुंचा रहा है, तो बहुत अच्छी बात है। धीरे धीरे इसका महत्व बढेगा ही। पर मैं उन तमाम जानकारियों को लेके चिंतित हूँ, जो कि हम आप जैसे तमाम पार्ट टाइम स्वयम्भू लेखक और एडिटर्स इन्टरनेट पे प्रतिदिन पब्लिश कर रहे हैं। नहीं-नहीं मैं क्वालिटी को लेके चिंतित नहीं हूँ। पर होता क्या है, कि सभी जानकारियां पूर्ण नहीं होती। आपस में जुडी नहीं होती। और इन्टरनेट सर्च हमको ऐसी ही तमाम अधूरी कड़ियों की एक सूची देता है और हम उसी में खो जाते हैं। सर्च सुविधा की वजह से हम इन्टरनेट पे ज्यादा आसानी से सर्च करते हैं बावजूद इसके कि हमारे पास उस सब्जेक्ट की एक बेहतरीन किताब घर में है। 

मेरा मानना है कि हमको किताबों की अहमियत को नहीं भूलना चाहिए। जहाँ तक हो सके इन्टरनेट का उपयोग एक इंडेक्स की तरह करना चाहिए और फिर संपूर्ण विस्तृत जानकारी के लिए किताब (हार्ड कॉपी ये डिजिटल कॉपी) पे ही निर्भर होना चाहिए। इन्टरनेट की सुविधा का सही उपयोग करना चाहिए। ये एक साधन है पर साध्य नहीं।

Wednesday, January 16, 2013

बनारस याद आता है

Varanasi Street
Varanasi Street (Photo credit: bestarns)

Kachauri-jalebi, #samosas, lassi, rabari, thandai -- the list of mouth-watering #food available on the #streets of #Varanasi is endless.

मैं ये सब मिस करता हूँ. वो चाय पीना, वो दूकान के किनारे खड़े होकर गांडीव पढना. फिर जब बगल से थानेदार की गाडी गुजरे तो बगल हो लेना. जब से शहर छूटा है, सब कुछ भूला सा लगता है.

मैं पहले सोचता था, कि ये सब मेरे ही साथ हो रहा है, पर औरों को देखता हूँ, तो लगता है, कि मैं फिर भी ठीक हूँ और लोग तो अपने शहर से निकले तो फिर किसी शहर के ना हो सके. जब कोई नया शहर मेरे को अपनाता है, तो मैं सोचता हूँ, कि जय हो बनारस. तुमने मुझे जीना सिखलाया - उन विपरीत परिस्थितियों में भी किसी कि शिकायत ना करना सिखलाया. तुमने मुझे ऐसा बनाया ....

वो मुझे भूल ही गया होगा, इतनी मुद्दत कोई खफा नहीं रहता।

Friday, May 7, 2010

शादी करोगे तो पता चलेगा... हुंह!!

Sister, Brother & MeImage by El_Sol via Flickr
तीन साल बाद वो भूल जाती थीं... अब हम जब क्लास ६ में थे तो वो ९ में थीं, अब भला हम उनके क्लास में तो जा नहीं सकते थे.. बड़ा परेशान करती थीं.. ये भी अजीब आदत थी.. कुछ भी पूछो तो कहेंगी - अभी ६ में हो ना, जब ९ में आओगे तो पता चलेगा. अभी बहुत आसान लग रहा है ना बेटा!! अभी थोड़े समय में पता चलेगा. अभी बोलो मैथ सेकंड (Maths -2) है तुम्हारे  में .. नहीं  ना !! तो जब ९ में ये सब्जेक्ट आएगा तब पता चलेगा. अभी कर लो मजा. 

टुन्ना को आज अनायास ही ये वाक्या याद आता है. टुन्नी उससे तीन साल बड़ी थी.  और ये आम नोंक झोंक इतनी स्वाभाविक थी कि, आज टुन्ना को एहसास होता है - कि जिन लोगो ने अपने जीवन में इस पल को नहीं जिया है, उन्होंने कितना कुछ मिस किया है. 

जब टुन्ना कुछ समय के बाद टुन्नी के क्लास में पहुँचता .. तो हर विषय की किताबों में वो सवाल खोजता जिसका जिक्र टुन्नी अक्सर किया करती थी. पर अब तो टुन्नी ११ में थी. टुन्ना मन ही मन सोचता था, कि काश एक बार ....  वही दूसरी तरफ टुन्नी मजे से टुन्ना को उसी तरह से टोपी पहनाते हुए आगे बढ़ती रही. 

समय ने पलटा खाया. टुन्नी ने डबल ग्रेजुएशन किया. अब टुन्नी ने MBA में दाखिला ले लिया था. वही दूसरी तरफ टुन्ना ने ग्रेजुएशन के बाद एक दूसरे शहर में नौकरी शुरू कर दी. लगा की सब ख़त्म, पर कहानी अभी बाकी है दोस्त. टुन्ना की कंपनी ने काम के साथ-साथ MBA का मौका दिया. बस फिर क्या था, पलक झपकते ही टुन्ना ने दाखिला ले लिया - और अब शुरू हुआ चुनौती का दौर - लेकिन दोनों अलग शहर में थे - तो उनकी बाते फ़ोन पे ही होती थी. किस सब्जेक्ट में कितना आया पूछ लिया करते थे. पर टुन्नी का पलड़ा फिर भी भारी था. आखिर वो फुल टाइम MBA जो कर रही थी

लीजिये टुन्नी पहुँची टुन्ना के शहर इन्टर्नशिप करने. टुन्ना से जितना बन पड़ा किया - आखिर उनके पास वर्क एक्सपेरिएंस था... तो टुन्नी के रिज्यूमे अपडेट से ले के जो बन पड़ा किया. जिन्दगी में पहली बार टुन्ना को इतनी ख़ुशी मिल रही थी पर फिर भी वो जब तक ये टुन्नी के मुह से नहीं सुन लेता कलेजे को ठंडक नहीं मिलती. 

इससे पहले की टुन्नी कहीं नौकरी करती उसके पहले अचानक ही टुन्नी की शादी हो गई और वो काफी दूर चली गई. टुन्ना के हाथ से समय निकल चुका था. उसको मालूम था कि अगर वो आज टुन्नी से बोलेगा ... तो टुन्नी तपाक बोलेगी - "शादी करोगे तो पता चलेगा - अभी समझ रहे हो ना कि नौकरी बड़ी चीज़ है.. हुंह!!"
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Thursday, February 4, 2010

छोटी छोटी खुशी के वो पल दो पल

Dinodia.com
Lottery (Photo credit: Internet - Dinodia.com)

अब लाटरी चाहे चार डालर की लगे या चार रूपये की - पर मन तो खुश होता है ही. मेरे को भी याद है, कि जब हम बनारस के बड़ी पियरी मोहल्ले में रहा करते थे तो एक बार पापा ने मेरे नाम से २ रूपये की लाटरी खरीदी थी, और उसमें शायद १० रुपये निकले थे - वो पापा का उस मोहल्ले के नुक्कड़ के पान वाले को (जो कि लाटरी विक्रेता भी था) अपना लकी लाटरी का टिकेट दिखा के वो १० रूपया लेना आज भी याद है. इस घटना को बीते बाईस साल हो गए.

फिर एक बार दैनिक जागरण की बाल प्रतियोगिता के लाटरी से चुने हुए विजेता के तौर पे मनीआर्डर से भेजे हुए वो २० रुपये का वही  नोट आज भी बनारस में घर में मेरी किसी डायरी में सुरक्षित रखा है. जबकि इस घटना को शायद सत्रह साल हो गया है. अब इसे सनक कहो या पागलपन - ये तो बस ऐसे ही होता है. आदमी कितना भी बड़ा हो जाए - पर दिल तो बच्चा है. वो तो बस अपने अन्दर की ना जाने कौन सी उधेड़बुन में हमेशा उलझा रहता है. उसको कभी पैसे रुपये या आराम शौक ... वगैरह.. से नहीं .. बल्कि बस कुछ भी ऐसा करने में मजा आता है.. बस जिसका कोई कारण नहीं होता है. 

तो जब आदमी खुश होता है, तो वो अपनी खुशी अपने सबसे नजदीकी इंसान से बांटना चाहता है. वो शायद कभी ये बता ना पाए कि उसमें ऐसा क्या ख़ास बात है, कि वो इस ख़ुशी को सबसे बांटने के लिए इस तरह से उत्सुक है. ये इंसान का वो भोला और मासूम रूप होता है. हमको अपने को खुशनसीब समझना चाहिए कि कम से कम हम किसी एक इंसान के इतने करीबी तो बन सके. वरना साथ रहने और ढेर सारा समय साथ गुजरने से भी कभी कभी हम दूर रहते हैं. "कभी दूर कभी पास" - और कभी कुछ लोग दूर रह के भी काफी पास पास और करीब महसूस करते हैं.  - ये कुछ उसी प्रकार से है, जैसे कि बच्चा जब छोटा होता है, तो वो कोई एकदम साधारण सी चीज़ देखता है, और अपने माँ बाप को उस चीज़ की तरफ इशारा कर के उनका ध्यान उस तरफ खींचना चाहता है.. और माँ  बाप उस बात पे खूब खुश हो के उसकी खुशी में शामिल होते हैं. बच्चा और भी खुश हो जाता है. 
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