पंचायतनामा

मैं और मेरी पंचायत. चाहे ऑफिस हो, या हो घर हम पंचायत होते हर जगह देख सकते हैं. आइये आप भी इस पंचायत में शामिल होइए. जिदगी की यही छोटी-मोटी पंचायतें ही याद रह जाती हैं - वरना इस जिंदगी में और क्या रखा है. "ये फुर्सत एक रुकी हुई ठहरी हुई चीज़ नहीं है, एक हरकत है एक जुम्बिश है - गुलजार"


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Monday, July 22, 2024

पाँच विशेषतायें

 

बच्चा की पाँच विशेषतायें

  1. खाते हैं तो बहुत ही खाते हैं। और बहुताय खाते हैं। हम ग़रीब हो सकते हैं, भूखे नहीं।
  2. हमने अपनी पुरानी / पैदाईशि विशेषता बरक़रार रखा है। (ये हमको सबसे ज़्यादा पसंद है)
  3. जो जैसा है, उसके साथ वैसे ही adjust कर लेते हैं।
  4. हेल्थ conscious हैं।
  5. हम व्यावहारिक नहीं होते होते रह जाते हैं। हम व्यावहारिक नहि हैं।

सोनू की पाँच विशेषतायें

  1. हमेशा नया सीखने की चाहत आज भी बनी हुई है। (ये विशेषता सबसे ज़्यादा पसंद है)
  2. स्वास्थ्य को लेके बहुत सजग रहते हैं।
  3. TV और न्यूज़ और सिनेमा देख के समय बेकार नहि करते।
  4. किसी भी तरह के दुर्व्यसन, जैसे धूम्रपान, मद्यपान से हमेशा दूर रहे।
  5. स्वाभाव से बहुत संतोषी हैं। किसी भी चमक को देख के अनावश्यक आकर्षित नहीं होते हैं।

शिनू की पाँच विशेषतायें

  1. अपने पति को उन्ही के अनुसार अजस्ट की हैं।
  2. खाने को ले के conscious हैं। नियमित हैं। शरीर और स्वास्थ्य को ले के सजग। (ये विशेषता सबसे ज़्यादा पसंद है)
  3. अपने अंदर की कोई भी चीज़ को इक्स्प्रेस नहीं कर पाते हैं।
  4. अच्छा खाना खाना पसंद है।
  5. नई नई चीज़ें ट्राई करना अच्छा लगता है।

December 30, 2017

बनारस: हमारे बचपन की यादें और सकारात्मकता

बचपन में हमने जो अनुभव किए, वे हमारे जीवन पर गहरा असर डालते हैं, और बनारस में हमारे लिए स्वीकृति का स्तर हमेशा उच्च रहा है। मुझे आज भी याद है कैसे हमारे कॉलोनी के डीडी ने बायपास पर बिजली बहाली के लिए धरना प्रदर्शन किया था।

यह घर पर हमारे लिए एक यात्रा के समान था जब हमें मोमबत्तियों या यहां तक कि पेट्रोमेक्स की रोशनी में पढ़ाई करनी पड़ती थी। समय के साथ और आर्थिक स्थिति में सुधार होने पर हमने इन्वर्टर खरीदा, और यही सब कुछ था।

पिछले 40 सालों में, लगता है कि सुधार न्यूनतम ही हुआ है, सिवाय इसके कि बिजली कटौती कम हो गई है। हजारों रातें हमने हाथ के पंखे और खुली छत पर बिना किसी शिकायत के बिताई हैं। अब हम गंभीर टैक्स भी भरते हैं, फिर भी इंफ्रास्ट्रक्चर हमेशा मेट्रो शहरों के लिए ही बनाया जाता है।

यहां तक कि नए मुख्यमंत्री भी इस जीवन के हिस्से को नजरअंदाज करते हैं और मीडिया बाजी पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं। यह सिस्टम इतना भ्रष्ट है कि आम जनता की समस्याओं को सुलझाने की बजाय केवल दिखावे पर जोर दिया जाता है।

बनारस में रहकर हमने कई चुनौतियों का सामना किया है, लेकिन इन कठिनाइयों ने हमें और भी मजबूत और सहनशील बनाया है। हमें यह समझना चाहिए कि बदलाव धीरे-धीरे होता है और हमें सकारात्मक रहकर अपनी आवाज उठानी चाहिए। केवल इसी तरह हम अपने शहर को और बेहतर बना सकते हैं।

बनारस की धरती पर जीवन जीना एक अनूठा अनुभव है और हमें गर्व है कि हम इस पवित्र नगरी का हिस्सा हैं।


आभार - बंटी भैया की डायरी से (मई 2021)

संस्मरण

 

संस्मरण

बड़े जद्दोजहद के बाद, अत्याधुनिक तकनीकों का सहारा लेते हुए हमने 8 मई का अपॉइंटमेंट लिया कोविड वैक्सीनशन के लिए नरपतपुर सेंटर पे। गूगल से स्थान का रास्ता समझा और सुबह पेट भर नाश्ता कर के निकल पड़े विजय अभियान हेतु। 30-40 मिनट की मोटरसाइकिल यात्रा के बाद निर्धारित स्थान पर ठीक 10 बजे सुबह हाजिर हो गए।

पता चला कि वहां उस समय तक न वैक्सीन आई थी न वैक्सीन लगाने वाले। अपने आप को देश की राजधानी का वाशिन्दा मानते हुए, इस जगह के पिछड़ेपन का कारण लोगों की लापरवाही को बताते हुए मन ही मन बहुत कोसा उस अस्पताल से सिस्टम को।

अंततः 10:45 पर वैक्सीन आई और बेतरतीब ढंग से लंबी लाइन लग गई धक्का-मुक्की के साथ, क्योंकि एक घंटे में बहुत लोगों का जमावड़ा हो गया था वहां पे। वहां 2 कमरों में वैक्सीन लग रही थी। हम एक में गए जहां कम भीड़ थी, फटाफट वैक्सीन लगवाई और विजयी मुद्रा में बाहर निकल लिए, दूसरे कमरे की भीड़ में घुसे हुए लोगों को देख मुस्कुराते हुए।

अब सर्टिफिकेट की प्रतीक्षा थी जिसे मित्रों को दिखा के छोटी-मोटी जंग जितने का प्रमाण देकर फ़र्ज़ी वाहवाही लूटी जाए और बाकियों को वैक्सीन लगवाने के महत्व को बताया जाए। शाम ढली पर सर्टिफिकेट न आया। चिंता बढ़ी। तब तक SMS आया कि आपके मन कर दिए जाने के कारण आपका वैक्सीनशन न हो पाया श्रीमान। साला दिमाग भन्ना गया। गूगल से वहां के इंचार्ज का नंबर निकाल के उन्हें फ़ोन लगाया और बरस पड़े। फिर उनके रिस्पांस से समझ आया कि उन्हें तो कोई फर्क ही नहीं पड़ा। उल्टा उन्होंने नया ज्ञान पिलाया कि भाई आपने 45+ वाले कक्ष में टीकाकरण करवाया था इसलिए गलती आपकी।

आगे के बाकी वार्तालाप में मेरी तरफ से विनम्रता का अतिरिक्त पुट रहा। अंत में ये नया की अब मैं फिर से कोवैक्सिन का अपॉइंटमेंट उसी सेंटर पे लूं तब वे सर्टिफिकेट दे देंगे। वो दिन था और आज का दिन मैं लगातार देखता रहा लेकिन साला कोवैक्सिन रूठ गया और लगातार कोविशील्ड ही आता रहा वहां पे। थक-हार कर मैंने दूसरे सेंटर पे कोवैक्सिन की बुकिंग ली।

आज सुबह बालों में कंघी कर के वाहन पहुँचा और नर्स के वाहन से हटने की प्रतीक्षा करता रहा। जैसे वो हटी, मैंने ऑपरेटर को संक्षेप में अपनी समस्या बताई और उससे निवेदन किया कि वो बिना वैक्सीन लगाए उसमें कन्फर्म कर दे। बेचारा सज्जन व्यक्ति था और मान गया। इस प्रकार फुल्ली ऑटोमेटेड सिस्टम में 12 दिन के अथक प्रयास और सहज मानवीय संवेदना के परिणाम स्वरूप मैं प्रथम डोज़ का प्रमाणपत्र पा सका।

ईश्वर के घर देर है अंधेर नहीं। धन्यवाद।


आभार - मनीष सिंह (बब्बू भैया) की डायरी से (मई 2021)

Sunday, May 10, 2020

कोविड - एक वायरस है

कोविड  कर के एक वायरस है. वो कहाँ से आया है, किसी को नहीं पता है. वो बेचारा क्या खता पीता है. ये, भी किसी को नहीं पता.

पर उसके आने से देश दुनिया में एक समता सी आ गई है. बस सब लोग बहुत शांति से रहने लगे हैं. सभी गरीब और कमजोर लगने लगे. अमेरिका को अब ऐसा कोई नया सिनेमा बनाने की जरूरत नहीं, जिसमे वो पूरे विश्व को बचा रहे हो.

सब लोग मास्क लगते है. कोई बहार नहीं जाता है. ५ साल का बच्चा अब वायरस का मतलब समझने लगा है. हम तो जब कंप्यूटर चलना सीखे तब समझे क्वारंटाइन क्या होता है. उस वक़्त कंप्यूटर के वायरस को एंटी वायरस क्वारंटाइन करता था. कंप्यूटर के मालिक को नहीं. पर अभी ये वाला जो  वायरस है, उसमे वायरस को धारण करने वाले को भी क्वारंटाइन करते हैं.

लोगों को मरना पड़  रहा है. बहुत ही हड़बड़ाहट है. लॉक डाउन  है. स्कूल बंद है. पुलिस और डॉक्टर जो फ्रंट पे रह के हम सबको बचा रहे हैं, उनको भी अपने जान देनी पड़  रही है. ऐसा पहले नहीं हुआ.

आशा करते हैं, आने वाले समय में ईश्वर की कृपा से सब ठीक हो जाएगा. 

सम्पत की उलझन

जब उस दिन रास्ते में संपत से भेंट हुई, तो वो जल्दी में कन्नी काटता हुआ दिखाई दिया। मैंने भी कहाँ छोड़ना था उसे। अरे हम कोई फेसबुक थोड़े ही न हैं कि  देखो न देखो तुम्हारी मरजी। बस सस्ती काफी की दूकान के आगे बैठ के शुरू कर दी पंचायत। थोडा खंगाला तो पता चला कि  बन्धु इसलिए मुहं लटकाए हैं, कि उनको लगता है,कि कोई उनकी बात नहीं समझता और वो जो भी कुछ करते हैं, उससे किसी न किसी को दुःख जरूर पहुंचता है। 

संपत कोई अकेला नहीं है. बहुत से आपको मिल जायेंगे। ये बड़ी ही विडम्बना है, कि हमें खुद ही नहीं पता कि आखिर हमें क्या चाहिए। ये ही सबसे बड़ी समस्या की जड़ है। ये मैं नहीं कह रहा, बल्कि कुछ दार्शनिकों ने कहा है, कि बस बढ़ते चलो रास्ता मिल जायेगा. स्थिरता किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकती है. जब भी कभी लगे कि आप दोराहे पे खड़े हैं, तो बस एक रास्ता चुनो और तेजी से उस रास्ते पे चल पड़ो। और इस भागम दौड़ में मिली १० असफलता, वहीँ पुरानी जगह खड़े रह के बेहतर विकल्प की आशा से लाख गुना बेहतर है।

इस हडबडी में अगर कुछ सही या गलत हुआ और अगर कोई दूसरा इससे आहात होता है, तो होने दो. जो आहत होता है, कसूर उसी का है. किसी विद्वान् ने सही कहा है - 'कोई बिना आपकी मर्जी के आपको परेशान नहीं कर सकता'. लेकिन अगर आपको ये लगता है, कि  आप इसके लिए जिम्मेदार है, तो इसका मतलब ये है, कि आपको अपने ऊपर भरोसा नहीं है. जब भरोसे की कमी होती है, तो हजार समस्याएं जन्म लेने लगती है। और फंस जाते हैं आप इस गड़बड़ झाले मे। 





Sunday, January 20, 2013

'का गुरु! हो गईला न बड़ा - मजा आवत ह'

grown up
Grown up (Photo credit: tvlistings.zap2it.com)
तब हम बड़े न हुए थे, छोटे बच्चे थे, लम्बाई भी कोई ज्यादा नहीं थी कि लोग बाग़ छोटा न समझें. बहुत जल्दी थी, बड़ा होने की. क्योंकि, अक्सर ऐसा होता था - कि उमर में बड़े भइया, चाचा या फिर पड़ोस में देख के लगता था, कि बड़ा हो जाऊं, तो बस फिर कभी डांट नहीं पड़ेगी.. राय देने की लत तो शुरू से ही थी, पर कभी किसी ने भाव नहीं दिया, छोटा होने के ये सब नुकसान समझ में आते थे... कोई भी काम पड़ा, तो सबसे छोटा होने की वजह से सीधे सबके आर्डर का भरपूर पालन करना पड़ता था.. बड़ी खीज होती थी... लगता था, कब बड़े होंगे.. समय मानो कितना धीरे - धीरे बीत रहा था...

और अब बड़े हो गए हैं। बड़े होने का एहसास होते ही वो पुराना बचपन मानो दूर से मुह चिढ़ा के कह रहा हो। 'का गुरु! हो गईला  न बड़ा - मजा आवत ह' - अरे काहे का मजा यार - "जब आप छोटे होते हैं तो बड़े होना चाहते हैं, जब बड़े होते हैं तो छोटे होना चाहते हैं।" मन करता है, कि  फिर से कोई डांटे - काम कैसे सही तरह से किया जाता है बताये। और जब गलती हो, तो साथ में खड़ा हो और फिर उसी बचपन की तरह कहे - "गिरते हैं शाह सवार ही मैदाने जंग में, वो तिफ़्ल क्या गिरे जो घुटने के बल चले " अब तो छोटी सी गलती पे मजा लेने वाले ज्यादा हैं और हितैषी कम। कम उम्र में हमारी हर बात पे ध्यान दिया जाता था। बड़े हो जाने  पे जब तक आप गलती नहीं करते तब तक कोई आपकी और ध्यान नहीं देता। वाह रे दुनिया का बड़प्पन! जैसे नींबू के शरबत में आर्टीफीशियल फ्लेवर होता है जबकि बर्तन धोने के लिक्विड में असली नींबू डालने का दावा करते हैं। अरे मैं कहता हूँ, कहे किसी की गलती पे हंसिये मत, उसे शर्मिंदा मत करिये बल्कि गले लगा लिजीए । किसी को गले लगाना  सर्वोत्तम उपहार है - एक ही साइज़ सभी को फिट आता है और एक्सचेंज करने में भी कोई समस्या नहीं होती। और याद रखिये लोग आपकी मान्यता का विरोध कर सकते हैं पर आपके प्रेम का नहीं। भगवान हमारे हांथों से ही अपने बच्चों को गले लगाता है।

उम्र के साथ साथ प्रेमिका और शादी की बाते भी उठाने लगती हैं। अगर आपकी कोई प्रेमिका नहीं है तो आपके जीवन में कुछ कमी है, लोग ऐसा आपको बताएँगे। और अगर आपकी कोई प्रेमिका है तो आपके जीवन में कुछ नहीं है ऐसा आपको एहसास होगा। पर सौ बात की एक बात है, कि  आप परेशान न हों और अपनी परेशानियों से दूर न भागें, क्योंकि जब वे आपको पकड़ेंगी तब आप उनसे भागते-भागते थक चुके होंगे। अब्राहम लिंकन ने कहा है कि यदि किसी व्यक्ति के चरित्र की दृढ़ता आंकना चाहते हों तो उसे शक्तियां और अधिकार दे दें। - मैं कहता हूँ, कि यदि आपको किसी का कुछ भी आंकना है तो उसको एक प्रेमिका दे दें जो कि बाद में उसकी बीवी बने। शादी वह क्षण है जहाँ आप यह नहीं कह सकते - "चलो सब कुछ भूल जाते हैं".


योग्यता आपको शिखर तक ले जा सकती है पर आपका चरित्र आपको वहां बनाये रखता है। किसी भी संवाद में सबसे ज़रूरी है वह सुनना जो कहा नहीं जा रहा हो। अपने कार्यस्थल पर हमें उनके प्रति आदर और समर्पण दिखाना चाहिए जो उपस्थित नहीं हैं, इस प्रकार हम उनका विश्वास प्राप्त कर लेते हैं जो उपस्थित हैं। इसका मतलब ये नहीं कि आप झूठी प्रशंशा कीजिये।  

इन दिनों हम ऐसी चीज़ों को खरीदना चाहते हैं जिनकी हमें ज़रूरत नहीं हैं, ऐसे धन से खरीदना चाहते हैं जो हमारे पास नहीं है, और उन लोगों को दिखाने के लिए खरीदना चाहते हैं जिन्हें हम पसंद नहीं करते। वाह रे मुर्खता! मूर्ख लोग जब एक समूह बनाकर खड़े हों तो उनकी ताक़त को कम न आंकें। और हाँ किसी को भी अपने जैसा बनाने की कोशिश न करें। भगवान जानता है कि आप जैसा एक ही काफी है। फिर भी कहूँगा कि
चीज़ों के उजले पक्ष की तरफ़ देखने से आज तक किसी की भी आँखें ख़राब नहीं हुईं और जैसा कि  एलिअनोर रूजवेल्ट ने कहा है कि आपकी अनुमति के बिना कोई भी आपको छोटा नहीं बना सकता तो बस बड़े होने पे इतना भी गम मत करिए। जरा उस शराबी के बारे में विचार करिए जो कि वही सब बकता है जो शराब न पीनेवाले सोचते हैं।

मस्त रहिये। एक दिन आएगा जब आपकी ज़िंदगी आपकी आंखों के सामने एक फ़िल्म की तरह दिखेगी, इसलिए एक बेहतर ज़िंदगी जियें। इटालियन कहावत है कि - शतरंज का खेल ख़त्म हो जाने पर राजा और पैदल सिपाही एक ही डब्बे में चले जाते हैं। अतः हमें सदैव उदार और दयालु होना चाहिए - चार चींटियाँ जंगल से गुजर रही थीं। उन्होंने एक हाथी को आते देखा। पहली चींटी बोली - "इसे ख़त्म कर देते हैं"। दूसरी चींटी बोली - "इसकी टांग तोड़ देते हैं"। तीसरी चींटी बोली - "इसे उठाकर फेंक देते हैं"। चौथी चींटी बोली - "इसे जाने दो यार, ये अकेला है और हम चार"।

Friday, January 18, 2013

इन्टरनेट - एक साधन है पर साध्य नहीं।

A book scanner at the Internet Archive headqua...
A book scanner at the Internet Archive headquarters in San Francisco, California. (Photo credit: Wikipedia)
कुछ लोग कहते हैं कि  आजकल का नया जमाना है। लोग किताब नहीं पढ़ते बल्कि वो जानकारियों के लिए इन्टरनेट पे ज्यादा आश्रित हैं। अब इन दोनों जरिये से जानकारी ली जा सकती है। हाँ, ये अब रीडर के खुद के ऊपर निर्भर करता है, कि  वो किस जरिये से किस तरह की जानकारी लेता है। 

इन्टरनेट पे तमाम जानकारियां ऐसी हैं, जिसको लोगो ने अपने अनुभव के आधार पे लिख डाला  है। अब अनुभव सही और गलत भी हो सकते हैं। अब जैसे मैं जब इस ब्लॉग को लिख रहा हूँ, तो ये एक प्रकार से इन्टरनेट पे मेरे अनुभव से जुड़ा हुआ ही है। वहीँ पर किताब एक ऐसी चीज़ है, जिसे पूरी तरह से रिसर्च के बाद लिखा जाता है। कई लोग उसका रिव्यु करते हैं और तब कहीं जा के कोई किताब मार्किट में आती है। 

किताब को पब्लिश करने से लेकर स्टोर तक पहुँचाने की प्रक्रिया बहुत ही जटिल और अत्यधिक समय लेने वाली है। वहीँ एक नुक्सान और होता है - कि  ऐसे वो तमाम विषय जो बहुत ही जल्द बदल जाते हैं, उनके ऊपर किताब लिख कर बुक स्टोर में पहुँचाना बहुत घाटे का सौदा साबित हो सकता है। जैसे एक उदहारण है, टूरिस्ट गाईड का। एक जनाब ने एक टूरिस्ट किताब बुक स्टोर से खरीदी और उसमे बताये अनुसार पहुँच गए एक तालाब के किनारे जो नार्थ ईस्ट चीन में नार्थ कोरिया के सीमा के समीप था। अब किताब में लिखा था की वहां कोई समस्या नहीं है। पर वो क्षेत्र निषिद्ध क्षेत्र निकला और जनाब को सैनिकों ने पकड़ के 1 महीने की कैद में डाल  दिया। बाद में गाइड ने उनसे क्षमा माँगी। 

वहीँ इन्टरनेट की ख़ास बात ये है, कि  उसके जरिये हम जानकारी को बहुत ही जल्दी उसके रीडर तक पहुंचा सकते है। ऐसे तमाम सब्जेक्ट (उदाहरण - ट्रेवल गाइड etc.) के लिए इन्टरनेट एक अच्छा साधन साबित हो सकता है। आपने अभी पढ़ा भी होगा कि  अब कुछ किताबे भी हैं जो कि सीधे सीधे डिजिटल फॉर्म में ही रिलीज़ हो रही हैं। इसका प्रमुख कारण है - सुगमता। ये बहुत ही अच्छी बात है। उन सारी परखी हुई जानकारियों को अगर कोई हमें  डिजिटल माध्यम से पहुंचा रहा है, तो बहुत अच्छी बात है। धीरे धीरे इसका महत्व बढेगा ही। पर मैं उन तमाम जानकारियों को लेके चिंतित हूँ, जो कि हम आप जैसे तमाम पार्ट टाइम स्वयम्भू लेखक और एडिटर्स इन्टरनेट पे प्रतिदिन पब्लिश कर रहे हैं। नहीं-नहीं मैं क्वालिटी को लेके चिंतित नहीं हूँ। पर होता क्या है, कि सभी जानकारियां पूर्ण नहीं होती। आपस में जुडी नहीं होती। और इन्टरनेट सर्च हमको ऐसी ही तमाम अधूरी कड़ियों की एक सूची देता है और हम उसी में खो जाते हैं। सर्च सुविधा की वजह से हम इन्टरनेट पे ज्यादा आसानी से सर्च करते हैं बावजूद इसके कि हमारे पास उस सब्जेक्ट की एक बेहतरीन किताब घर में है। 

मेरा मानना है कि हमको किताबों की अहमियत को नहीं भूलना चाहिए। जहाँ तक हो सके इन्टरनेट का उपयोग एक इंडेक्स की तरह करना चाहिए और फिर संपूर्ण विस्तृत जानकारी के लिए किताब (हार्ड कॉपी ये डिजिटल कॉपी) पे ही निर्भर होना चाहिए। इन्टरनेट की सुविधा का सही उपयोग करना चाहिए। ये एक साधन है पर साध्य नहीं।
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Bangalore, Karnataka, India
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